जिस फाइनेंस क्षेत्र का काम आम बचत को खींचकर देश के उद्योगीकरण में लगाना है, वह पूरी तरह लोगों को छलने में लगा है। शेयर बाज़ार का छल तो जगजाहिर है। लेकिन खतरनाक बात यह है कि इसमें बीमा से लेकर समूचा बैंकिंग क्षेत्र भी शामिल हो गया है। यहां तक कि सरकारी बीमा कंपनी, भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) के कारिंदे भी किसी से कम नहीं हैं। हो सकता है कि आपको भी हाल में इस तरह का एसएमएस या ई-मेल मिला हो कि एलआईसी 1 अक्टूबर 2013 से अपनी सबसे अच्छी पॉलिसियां बेचनी बंद कर देगी और प्रीमियम पर सर्विस टैक्स भी लगाने लगेगी। इसलिए 30 सितंबर 2013 तक लाभ लें ले, नहीं तो बाद में पछताना पड़ेगा।
यह सरासर झूठ है और कमाल की बात यह है कि यह झूठ सरकारी कंपनी एलआईसी की तरफ से ग्राहकों को फंसाने के लिए बोला जा रहा है। हकीकत यह है कि बीमा नियामक संस्था, इरडा (IRDA) की तरफ से इसी साल 18 फरवरी को जारी सर्कुलर के अनुसार, 1 अक्टूबर 2013 से पारंपरिक बीमा पॉलिसियों में जहां ग्राहकों को ज्यादा सरेंडर वैल्यू मिलेगी, वहीं एजेंटों का कमीशन घट जाएगा। अभी एजेंट को जहां पहले साल के प्रीमियम का 40 फीसदी तक कमीशन मिल जाता है, वहीं अब कमीशन पॉलिसी में प्रीमियम देने की अवधि व कुछ अन्य कारकों पर निर्भर करेगा।
आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि जब एलआईसी जैसी सरकारी कंपनी की तरफ से झूठ बोला या बोलवाया जा रहा है (क्योंकि एलआईसी प्रबंधन कह सकता है कि यह काम एजेंट कर रहे हैं, वो नहीं) तब निजी कंपनियों का क्या हाल होगा। रिलायंस लाइफ तो ग्राहकों को अपना गारंटीड मनीबैक प्लान इस अंदाज़ में बेचती है कि बस तीन से पांच साल प्रीमियम दो और बीमा कवर ताज़िंदगी आपको मिलता रहेगा। ऊपर से मेडिकल बीमा भी इस पॉलिसी के साथ मुफ्त मिल जाएगा। याद रखें कि जो चीज़ अविश्वसनीय लगे, फाइनेंस के क्षेत्र में वो वाकई भरोसा करने लायक नहीं होती। उसके पीछे कोई न कोई झूठ या फरेब छिपा होता है।
बैंकिंग क्षेत्र में तो डंके की चोट पर ग्राहकों से फरेब किया जा रहा है और वो भी पूरी तरह नियमानुसार। हाल ही में रिजर्व बैंक की तरफ से जारी आंकड़ों के मुताबिक भारतीय बैंक ज्यादा खर्च के बावजूद ज्यादा मुनाफा कमा रहे हैं क्योंकि वे ग्राहकों पर कहीं ज्यादा भार डाल देते हैं। उनकी अक्षमता का प्रमाण यह है कि 2012 में उनका परिचालन खर्च कुल आस्तियों का 1.65 फीसदी है, जबकि चीन में यह 0.80 फीसदी, ब्रिटेन में 1.03 फीसदी, कोरिया में 1.05 फीसदी और मलयेशिया में 1.27 फीसदी है। ऐसा तब है कि जब भारतीय बैंकों पहसे से काफी सक्षम हुए हैं। 2003 में तो यह अनुपात 2.24 फीसदी हुआ करता था।
दूसरी तरफ, मुनाफा कमाने में भारतीय बैंकों का शुद्ध ब्याज मार्जिन (एनआईएम) बहुतों से ज्यादा है। भारतीय बैंकों का औसत एनआईएम 2012 में 2.70 फीसदी रहा है, जबकि ब्रिटेन जैसे विकसित देश में यह मात्र 1.02 फीसदी है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि भारतीयों बैंकों की 40 फीसदी से ज्यादा जमा कासा (चालू व बचत खाते) से आती है जिस पर वे या तो शून्य या अधिकतम 4 फीसदी सालाना ब्याज (कोटक या यस बैंक जैसों कुछ बैंकों को छोड़कर) देते हैं। वहीं वे ऋण पर 12-14 फीसदी ब्याज लेते हैं।
दुनिया भर में अमूमन बैंकों में जमा रखनेवाले ग्राहकों को मुद्रास्फीति के प्रभाव को खत्म कर देनेवाला ब्याज मिलता है या उनके देश में ऐसे माध्यम होते हैं जहां लगाकर आम लोग अपनी बचत को मुद्रास्फीति की मार से बचा सकते हैं। अपने यहां भी इस तरह की पहल हो रही है इनफ्लेशन इंडेक्स बांडों के जरिए। पहले ये थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) पर आधारित मुद्रास्फीति से जुड़े थे। अच्छी बात यह है कि रिजर्व बैंक के नए गवर्नर रघुरान राजन ने इस बांडों को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) पर आधारित मुद्रास्फीति से जोड़ने की घोषणा की है। दोनों मुद्रास्फीति में अमूमन चार फीसदी का अंतर होता है।
इसके बावजूद ऋण और जमा पर ब्याज दर में ऐसी संरचनागत खामियां हैं जिनका बैंक जमकर फायदा उठा रहे हैं। जैसे, होमलोन पर बैंक अमूमन 11 फीसदी ब्याज लेते हैं। बचत खाते पर ब्याज दर 4 फीसदी है। रेपो दर अभी 7.25 फीसदी है। माना जा सकता है कि सिस्टम में धन या पूंजी की लागत 8 फीसदी है। बैंकों के लिए जमाधन की औसत लागत 6 फीसदी से ज्यादा नहीं होती। इस पर दो फीसदी मार्जिन जोड़कर वो हमसे 8 फीसदी ब्याज ले सकते हैं। लेकिन वो हमसे 11 फीसदी ब्याज लेते हैं। इस तरह 25 लाख रुपए के 15 साल के लोन पर वे हमसे कुल 1.14 करोड़ रुपए ले लेते हैं, जबकि कायदे से यह भुगतान 86.50 लाख रुपए का बनता है। इस तरह धन के समय मूल्य को जोड़ने के बाद वे हमसे 27.16 लाख रुपए ज्यादा वसूल कर रहे हैं। रिजर्व बैंक ने इस समस्या से निपटने के लिए बैंक रेट की प्रणाली तीन साल पहले लागू की थी। लेकिन बैंक उसे बड़ी चालाकी से निष्प्रभावी बना चुके हैं।
पूंजी बाज़ार या शेयर बाज़ार में तो हालत और भी खराब हैं। ऑपरेटरों का बोलबाला है। विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) के हाथ में बाज़ार की कुंजी है। एचएनआई (हाई नेटवर्थ इंडीविजुअल) के खेल भी चलते रहते हैं। लेकिन रिटेल निवेशक नदारद है। यह भी नहीं वे म्यूचुअल फंडों के परोक्ष रास्ते से बाज़ार में आने लगे हों। सेबी के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक चालू वित्त वर्ष 2013-14 के पहले चार महीनों में 13 लाख निवेशक म्यूचुअल फंडों को सलाम बोल चुके हैं। मार्च 2013 के अंत में देश में सक्रिय 44 म्युचुअल फंडों के निवेशकों (फोलियो) की कुल संख्या 4.28 करोड़ थी। यह जुलाई 2013 के अंत में 4.15 करोड़ पर आ चुकी है।
असल में शेयर बाज़ार में भी काले को सफेद करने का धंधा बड़े पैमाने पर होता है। हाल में दिल्ली में क्स्तूरबा गांधी मार्ग पर स्थित कैलाश बिल्डिंग की बारहवीं मंजिल पर ऑफिस रखनेवाली एक फाइनेंस फर्म के सीईओ से मिला। मेरे सामने एक सज्जन 1000 के नोट की गड्डियां पॉलिथीन के बैग में लेकर वहां बैठे थे। बाद में तहकीकात से पता चला कि यह फर्म का मुख्य धंधा काले को सफेद करने का है। बाकी ब्रोकरेज वगैरह तो महज दिखावा है। जैसे, इस फर्म ने एक नौकरीपेशा शख्स से 10 लाख का चेक लेकर उसे 10 लाख रुपए कैश दे दिए और ऊपर से पांच साल तक हर साल 60000 रुपए देते रहना का सौदा किया।
असल में, ये सारी गड़बड़ियां नियमन की हमारी गलत व्यवस्था के चलते हैं। कारण, रिजर्व बैंक, सेबी और इऱडा का ज़ोर सिस्टम को बचाए रखने पर है। उनकी मुख्य चिंता यह रहती है कि बैंक, बीमा कंपनियां और शेयर बाज़ार वगैरह कैसे बचे रहें और उन्हें कोई आंच न आए। वे कंपनियों या बैंकों की नज़र से सोचते हैं। ग्राहकों का पक्ष उनकी प्राथमिकता में नहीं है। उसके लिए तो वे बस शांतिः, शांतिः, शांतिः की जुबान चलाकर काम चला लेते हैं।