आज नगरों-महानगरों की चौहद्दियों से लेकर राज्यों की सीमाओं और गांवों के ब्लॉक व पाठशालाओं तक लाखों मजदूर अटके पड़े हैं। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल व पंजाब तक से प्रवासी मजदूर अपने गांवों को कूच कर चुके हैं। जो नहीं निकल पाए हैं, वे माकूल मौके व साधन के इंतज़ार में हैं। उन्हें अपने मुलुक या वतन पहुंचने की बेचैनी है। एक बार गांव पहुंच गए तो शायद कोरोना का कहर खत्म होने के बाद भी वापस शहरों का रुख न करें।
कोरोना महामारी के बाद पांच करोड़ से ज्यादा प्रवासी मजदूर गांव वापसी कर रहे हैं। कठिन कठोर चुनौती है कि जो कृषि देश की अर्थव्यवस्था में 16.5 प्रतिशत योगदान के बावजूद लगभग 45 प्रतिशत श्रम-शक्ति को खपाए हुए हो, वह बाहर से लौटे इन मजदूरों को कैसे जज्ब कर पाएगी? फिर भी 10.07 करोड़ परिवारों के 49.51 करोड़ लोगों का भार ढो रही कृषि को कम से कम और पांच करोड़ लोगों को टिकाने लायक बनाना होगा। नहीं तो देश भयंकर सामाजिक अशांति का शिकार हो सकता है।
समस्या अभी की नहीं है कि खेतों से गेहूं की खड़ी फसल को घर लाना है या फल-सब्जियां बरबाद चली जा रही हैं और दो-तीन महीने पहले तक 50 रुपए किलो में बिकते दूध को अब 20-25 रुपए किलो में निकालना पड़ रहा है। यह सब मुश्किल तो कोरोना की विदाई के बाद मांग बढ़ने पर दूर हो जाएगी। समस्या बाद की है। गांवों में लौटे मजदूर अभी तक बाहर से धन भेजकर खेती-किसानी के लिए कैश का इंतजाम कर देते थे। लेकिन अब यह स्रोत सूख गया है। दूसरे, इन मजदूरों के भरण-पोषण का बोझ भी अब खेती पर आ गया है। इसलिए समस्या का तात्कालिक नहीं, स्थाई समाधान निकालना होगा।
क्या हो सकता है यह समाधान? सीधा समाधान यही है कि ग्रामीण इलाकों में कृषि आधारित छोटे-छोटे उद्योग लगाए जाएं और खेती को गेहूं-धान, चना-मटर व गन्ने जैसी पारम्परिक फसलों के दायरे से निकालकर व्यापक बनाया जाए। किसान हेल्थफूड माने जा रहे अलसी या सावां-कोदो की खेती फिर लसे क्यों नहीं शुरू कर सकता? समग्र समाधान के ग्रामीण इलाकों में ज़रूरी इंफास्ट्रक्चर व मार्केटिंग तंत्र पर भारी निवेश करना पड़ेगा। यह निवेश सरकार को ही करना होगा। इसे लगातार मुनाफा बढ़ाने के चक्कर में लगे निजी क्षेत्र पर नहीं छोड़ा जा सकता।
आखिर इसके लिए धन कहां से आएगा तो इसका सीधा-सा जवाब है कि इस समय सरकार खाद्य सुरक्षा के नाम पर एफसीआई को सालाना लगभग 3.5 लाख करोड़ रुपए की सब्सिडी देती है। यह वो निगम है जहां टनों अनाज खुले में भीगने से सड़ या सड़ा दिया जाता है तो उसे औने-पौने दाम पर शराब निर्माता इकाइयों को दे दिया जाता है। इस सब्सिडी को तर्कसंगत बनाकर ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए बड़ी रकम निकाली जा सकती है। साथ ही केंद्र से ग्रामीण विकास विभाग को सालाना मिल रहे लगभग 1.20 लाख करोड़ रुपए का सही लेखा-जोखा किया जाना चाहिए।
अगर ब्लॉक नहीं तो तहसील स्तर पर स्पेशल इकनॉमिक ज़ोन की तरह फूड प्रोसेगिंग ज़ोन बना दिए जाएं। इनमें इकाइयां लगाने के लिए किसानों के फार्मर्स प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइजेशंस (एफपीओ), सहकारी समितियों और कंपनियों को प्रोत्साहित किया जाए। देश में इस वक्त भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के 102 संस्थान, 71 राज्य कृषि विश्वविद्यालय और 716 कृषि विज्ञान केंद्र है। इनके ज़रिए किसानों तक अत्याधुनिक टेक्नोलॉज़ी पहुंचाई जाए।
असल में सरकार गांवों से शहरो में पलायन करते मजदूरों की समस्या से सालों-साल से वाकिफ है। इसीलिए पहले 100 स्मार्ट शहर बनाने का मिशन बनाया गया तकि मजदूरों को नजदीक में ही काम मिल जाए। बाद में इस मिशन का लक्ष्य 4000 शहरों का कर दिया गया। दिक्कत यह है कि अभी तक स्मार्ट सिटी के नाम पर पुराने शहरों को ही रंग-रोगन किया जा रहा है। ज़रूरत है कि हर तहसील या ज़िला मुख्यालय को स्मार्ट शहर के रूप में विकसित किया जाए ताकि गांव लौट चुके मजदूर स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ाने में योगदान कर सकें।
खास बात यह है कि अगर ज़िला प्रशासन को संवेदनशील बना दिया जाए तो वह ग्रामीण अंचलों में स्वतःस्फूर्त तरीके से उभर रही उद्यमशीलता को मॉडल बनाकर विकसित कर सकता है। मसलन, उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ ज़िले में कुछ साल पहले एक किसान ने केला प्रोसेसिंग यूनिट लगा ली। आज उस यूनिट में तमिलनाडु तक से केले प्रोसेस होने के लिए गाड़ी में भरकर आते और चले जाते हैं। मध्य प्रदेश में सागर ज़िले में एक नौजवान तीन एकड़ खेती से मल्टी-लेयर फार्मिंग से साल भर में 15 लाख रुपए बना रहा है, वो भी बिना किसी रासायनिक उर्वरक के इस्तेमाल के। हर ग्रामीण इलाके में इतने औषधीय पौधे झाड़-झंखाड़ के रूप में उगते हैं कि उनकी प्रोसेसिंग से सारा इलाका आबाद हो सकता है। कहने का मतलब यह कि समाधान हर तरफ बिखरे पड़े हैं। बस, ज़रूरत है तो खोजने की सही नीयत और साफ नज़र की।
(यह लेख रविवार, 3 मई 2020 को दैनिक जागरण के मुद्दा पेज़ पर छप चुुका है)