हर कोई दो का चार करने में जुटा है, बिना यह जाने कि असल में दो का चार होता कैसे है। यह धरती क्या, पूरा ब्रह्माण्ड कमोबेश नियत है, स्थाई है। यहां कुछ जोड़ा-घटाया नहीं जा सकता। कोई चीज एक महाशंख टन है तो आदि से अंत तक उतनी ही रहेगी। बस, उसका रूप बदलता है। द्रव्य दूसरे द्रव्य में ही नहीं, ऊर्जा तक में बदल जाता है। लेकिन ऊर्जा और द्रव्य का योगफल एक ही रहता है। हालांकि कुछ वैज्ञानिक इस परिकल्पना को साबित करने में लगे हैं कि हमारा ब्रह्माण्ड निरतंर विस्तृत हो रहा है। लेकिन इस विस्तार की गति इतनी धीमी है कि हमारी क्या, अगली दस पुश्तों पर भी कोई फर्क नहीं पड़ता।
हकीकत में किसना दो का चार ही नहीं, सौ तक कर डालता है। एक बीज से सैकड़ों बीज पैदा कर लेता है। लेकिन उसे इसका मूल्य नहीं मिलता और धरती के गर्भ से उपजाया आलू-प्याज उसे सड़कों पर फेंकना पड़ता है। दो का चार करता है वो उद्यमी व श्रमिक जो पूंजी व श्रम के समुचित नियोजन न जाने क्या-क्या अद्भुत काम की चीजें फैक्टरी से निकालकर बाजार में डाल देता है, जहां से उसे उसका मूल्य मिलता है। बाजार में ऊंच-नीच बहुत है। लेकिन वह किसी भी वस्तु या सेवा को उसका वाजिब मूल्य पाने का इकलौता माध्यम है। इसमें यकीनन गड़बड़ियां बहुत हैं, लेकिन यहां किसी की तानाशाही अनंत समय तक नहीं चल सकती।
समाज के साथ शेयर बाजार पर भी यही बात लागू होती है। कोई भी बाजार को लंबे समय तक बांध नहीं सकता, अपने इशारों पर नचा नहीं सकता। न तो हर्षद मेहता या राकेश झुनझुनवाला जैसे उस्ताकद खिलाड़ी और न ही विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआईआई) जो बाहर से यहां सिर्फ नोट बनाने के लिए ही आए हैं। असल में इक्विटी बाजार एक सापेक्ष अवधारणा है और यहां अंततः लंबा निवेश ही फलता है। दो-चार दिन की ट्रेडिंग से कमाई करने की बात अलग है, लेकिन टेक्निकल एनालिसिस के आधार पर निकले चार्ट खास कुछ नहीं बता सकते।
अपने यहां वे इतना इसलिए चल रहे हैं क्योंकि बाजार का 95 फीसदी वोल्यूम एफआईआई पैदा करते हैं और उनकी खरीद अगले दिन का टेक्निकल ट्रेंड बन जाती है। यही अगर, भारतीय निवेशक बड़ी तादाद में बाजार में उतर पड़ें तो अभी के सारे समीकरण भरभरा कर गिर पड़ेंगे। खैर, मेरा कहने का मतलब यह है कि निवेश के साथ बहुत सारे मसलों पर भी सोचते-समझते रहिए। मैं कोई गुरुज्ञानी नहीं हूं। अपनी आधी-अधूरी सोच का कंकड़ फेंकता रहता हूं ताकि आप सोचने को प्रेरित हो जाएं। आइए देखते हैं कुछ अन्य कंकड़, जो इस हफ्ते फेंके गए…
- बाजार हमारी या आपकी सदिच्छा से नहीं चलता। यहां खरीदने-बेचने वालों की वास्तविक रस्साकसी में ही शेयरों के भाव तय होते हैं। फंडामेंटल्स में मजबूत कंपनी का शेयर भी बाजार में पिट सकता है और कमजोर कंपनी का शेयर भी कुलांचे भर सकता है। भारत की विकासशील अर्थव्यवस्था के अविकसित व विकलांग शेयर बाजार का यह ऐसा सच है जिसे हम नजरअंदाज नहीं कर सकते।
- नोट बनाने का लालच तो सब में है। लेकिन इस देश में बचानेवाले कितने हैं और इन बचानेवालों में भी अपने धन को जोखिम में डालने की जुर्रत कितने लोग कर सकते हैं? फिर आखिर मैं किसकी सेवा में लगा हूं? इन लोगों की हालत तो वही है कि गंजेड़ी यार किसके, दम लगाकर खिसके। इन धनवालों के पास तो धन बनाने की सीख के लिए धन फेंकने के बहुत सारे दरिया हैं।
- बाजार में आई तेज गिरावट में सट्टेबाजी का हाथ जरूर है। लेकिन इसके चलते बहुत सारी अच्छी कंपनियां इस समय जमीन तक झुककर हमें सलाम कर रही हैं। हमें उनका सलाम स्वीकार कर लेना चाहिए क्योंकि अभी न तो कयामत आई है कि दुनिया खत्म हो जाए और न ही भारत की विकासगाथा का पटाक्षेप होने जा रहा है।
- सही रणनीति यही है कि 15 फीसदी से ज्यादा रिटर्न मिल रहा हो तो ज्यादा लालच न कर बेचके फायदा कमा लेना चाहिए। फिलहाल लांग टर्म व शॉर्ट टर्म का कोई मतलब नहीं रह गया है। एक तरह की ट्रेडिंग का दौर है यह। लेकिन यहां भी कुछ महीनों का धैर्य तो जरूरी है। रोज-ब-रोज की ट्रेडिंग से हमें हर हाल में दूर ही रहना चाहिए क्योंकि हमारे पास न तो उतना कौशल है और न ही जोखिम उठाने की उतनी क्षमता। डेरिवेटिव से तो जितना फासला हो, उतना ही अच्छा।