मोदी सरकार ने दस साल के शासन में अर्थव्यवस्था के कुशल वित्तीय प्रबंधन का नगाड़ा बहुत बजाया है। लेकिन हकीकत में यह ढोल के भीतर की पोल और भयंकर कुप्रबंधन है। वित्तीय प्रबंधन का बड़ा सटीक पैमाना होता है राजकोषीय़ घाटा। बीते वित्त वर्ष 2023-24 में तमाम जोड़तोड़ के बावजूद देश का राजकोषीय घाटा जीडीपी का 5.63% रहा है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस पर खूब अपनी पीठ थपथपाई। मगर यह 2012 से 2019 के दौरान रहे राजकोषीय घाटे के अनुपात से अधिक है। इससे पहले वित्त वर्ष 2010-11 में ही यह इससे ज्यादा 5.91% रहा था। वित्तीय कुप्रबंधन की दूसरी मिसाल है मुद्रास्फीति। सितंबर में रिटेल मुद्रास्फीति की दर नौ महीनों के सर्वोच्च स्तर 5.49% पर पहुंच गई। इसकी खास वजह है खाद्य पदार्थों की महंगाई जिसकी दर इस दौरान 9.24% रही है। रिजर्व बैंक गवर्नर शक्तिदास इसको आधार बनाकर कह रहे हैं कि अभी ब्याज दरें घटाने का वक्त नहीं आया है। उनको पता है कि खाद्य मुद्रास्फीति मौद्रिक नीति नहीं, बल्कि सरकार की आर्थिक व वित्तीय नीतियों से काबू में आएगी। लेकिन सरकार के दास हैं तो बोल नहीं सकते। दिक्कत यह है कि सरकारी मुद्रास्फीति की तुलना में वास्तविक मुद्रास्फीति काफी ज्यादा है। इसका असर लोकसभा चुनावों में साफ दिखा। रुपया भी डॉलर के मुकाबले 84 तक गिरकर नया पलीता लगा रहा है। फिर भी विकसित भारत का स्वांग! अब बुधवार की बुद्धि…
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