एक तो शुक्रवार, ऊपर से 13 तारीख। पश्चिम देशों के निवेशक इसे बडा अपशगुनी संयोग मानते हैं। इसलिए वे उस दिन घर से निकले ही नहीं। भारतीय शेयर बाजार के लिए शुक्रवार, 13 जनवरी का दिन कतई अच्छा नहीं रहा। बीता हफ्ता करेक्शन के लिहाज से ही नहीं, उथल-पुथल के लिहाज से भी हमारे शेयर बाजार के लिए सबसे बुरा हफ्ता रहा। हम बाजार की गिरावट से ज्यादा चौंके नहीं क्योंकि हमारा मानता है कि निफ्टी में 5700 का नाजुक स्तर तोड़ देने के बाद अब पूरी आशंका इस बात की है कि बाजार का अगला मुकाम 5500 का होगा और बदतर सूरत में यह 5300 तक भी जा सकता है।
निवेशकों के मन में असली डर यह है कि हम कहीं 2008 की स्थिति में तो नहीं पहुंच गए हैं? इसका दो-टूक जवाब है – नहीं। इसकी कुछ स्पष्ट वजहें हैं। 2008 की गिरावट के पीछे लेहमान ब्रदर्स की अंतरराष्ट्रीय घटना थी जिसने दुनिया के बाजारों में बड़ा संकट पैदा कर दिया था और इसके चलते पड़े धन वापसी के दबाव में एफआईआई ने एक महीने में ही भारतीय बाजार से 700 करोड़ डॉलर निकाल लिये थे। लेकिन इस बार के करेक्शन के पीछे घोटाले, मुद्रास्फीति, ब्याज दरें बढ़ने का अंदेशा और सबसे ऊपर संसद में छाये गतिरोध जैसे स्वदेशी कारक हैं।
2008 में सब कुछ ठहर गया था क्योंकि जहां पश्चिम मुश्किल में फंसा था, वहीं पूरब में क्षमता विस्तार इतना हो चुका था कि उनके इनवेंटरी को उठानेवाले ही नहीं थे। जिंसों के दाम में भारी गिरावट ने बैंकों को प्रभावित किया था क्योंकि बहुत से आयातकों ने बाहर से मंगाया गया माल उठाने से मना कर दिया था जिससे बैंकों को तमाम एलसी (लेटर ऑफ क्रेडिट) खारिज करनी पड़ी थी। इससे पूरा बिजनेस चक्र प्रभावित हुआ था। हमें दो साल लग गए इस स्थिति से उबरने में और अब अमेरिका में इस साल 3 फीसदी आर्थिक विकास की बात चल रही है।
लेहमान से शुरू हुए वैश्विक वित्तीय संकट का भारत पर भी गंभीर असर पड़ा। जीडीपी की विकास दर 9.5 फीसदी से घटकर 6 फीसदी पर आ गई और कुछ विश्लेषक इसके 3 फीसदी तक चले जाने की बात करने लगे। लेकिन भारत सरकार के वाजिब कदमों और तमाम उद्योगों को दिए गए आर्थिक आवेग से ऐसा नहीं हो सका और हम जल्दी ही आर्थिक सुस्ती से बाहर निकल आए। अब हम 8.5 फीसदी विकास दर की चंगी हालत में हैं। कॉरपोरेट सेक्टर के लाभ में भी 20 फीसदी की ठीकठाक वृद्धि हो रही है।
इस समय सेंसेक्स बीते दस सालों के औसत पी/ई पर ट्रेड हो रहा है। इसलिए फंडामेंटल्स को देखें तो बाजार में सीमित गिरावट की ही गुंजाइश है। हालांकि दूसरे कारकों की वजह से गिरावट आ ही सकती है। हर गिरावट के कुछ दृश्य तो कुछ अदृश्य कारण होते हैं। 2008 में लेहमान मसले का असर था। 2010-11 में घोटालों से लेकर मुद्रास्फीति, ब्याज दरें बढ़ने के हालात जैसे कारकों को साफ देख सकते हैं। लेकिन हम इस अदृश्य पहलू को नहीं देख सकते कि आगे संसद में क्या होनेवाला है।
संक्षेप में कहें तो कोई भी अकेला ऐसा मसला नहीं है जो 2008 के संकट की टक्कर का हो, लेकिन प्रभाव काफी कुछ उसी तरह का है। याद रखने की बात है कि पिछले संकट के बाद बाजार ने किसी को भनक लगे बगैर अचानक अप्रैल 2009 में यू-टर्न ले लिया था। 2008 की घटना बड़ी थी और बाजार ने खुद को 8000 से 8500 अंक तक खुद को जमाया था और फिर छह महीनों के भीतर बढ़कर 15,000 तक पहुंच गया। इस बार भी सेंसेक्स काफी ज्यादा उतार-चढ़ाव के साथ खुद को जमा रहा है और इस बार भी वह एक दिन यू-टर्न लेगा।
भारत में एफआईआई का निवेश कुल 2000 करोड़ डॉलर के आसपास है। वे इसका महज 10-11 फीसदी हिस्सा (1000 करोड़ रुपए या 22.22 करोड़ डॉलर) ही बेच रहे हैं। लेकिन उनकी इस मामूली बिक्री ने बाजार में निराशा घोल दी है जिससे उनके खुद के निवेश पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। इन हालात में यह जानना दिलचस्प होगा कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं? आइए, देखते हैं।
डेरिवेटिव सौदों के दायरे में आनेवाली 224 लिस्टेड कंपनियों का बाजार पूंजीकरण 54 लाख करोड़ रुपए का है, जबकि एफ एंड ओ सेगमेंट में ओपन इंटरेस्ट मात्र 36,000 करोड़ रुपए का है। एफ एंड ओ बाजार को नियंत्रित करने के लिए मात्र 7000 करोड़ रुपए की दरकार है। निफ्टी के कॉल व पुट ऑप्शन के एक लाख करोड़ रुपए के कारोबार को संभालने के लिए 1000 करोड़ रुपए और चाहिए, जबकि वास्तविक निफ्टी के लिए मार्जिन के रूप में 2500 करोड़ रुपए चाहिए। यह सारी रकम मिलाकर करीब 200 करोड़ डॉलर बनती है जिससे 1.40 लाख करोड़ रुपए का एफ एंड ओ बाजार नियंत्रित किया जा सकता है।
जब तक डेरिवेटिव बाजार में फिजिकल सेटलमेंट नहीं आता तब तक कैश बाजार में गहराई नहीं आएगी और मंदड़िए शॉर्ट सेलिंग की मौज लेते रहेंगे। दूसरा मुद्दा यह है कि 95 फीसदी का प्राइस बैंड बहुत पुराना पड़ चुका है और इन कंपनियों के बाजार पूंजीकरण के आधार पर इसे फिर से निर्धारित किया जाना चाहिए। तभी इनके स्टॉक में भागीदारी बढ़ सकती है। फिजिकल सेटलमेंट बहुत सारे निवेशकों को ए ग्रुप के शेयरों के कैश सौदों की तरफ खींच सकता है। इस तरह हासिल शेयरों का इस्तेमाल वे पुराने बदला सिस्टम की तरह सेटलमेंट के वक्त उधार देने में सकते हैं। मुझे नहीं लगता कि इन मुद्दों पर कोई आवाज कहीं से उठाई जाएगी। इसलिए आपको बाजार में इस समय जारी जबरदस्त उतार-चढ़ाव की आदत डालनी पड़ेगी।
अभी तो बाजार की तलहटी 5600, 5500, 5400 या यहां तक कि 5300 भी हो सकती है। लेकिन इतना तय है कि बाजार वहां से तेज वापसी करेगा और यह सिलसिला शुरू होने के दो महीने के भीतर सभी स्टॉक्स 50 फीसदी तक बढ़ सकते हैं। फिलहाल निवेशकों को धैर्य से इंतजार करना चाहिए। ट्रेडरों को भी बस दूर से देखते रहना चाहिए। बाजार के भयंकर उतार-चढ़ाव के इस माहौल में केवल जोखिम उठा सकनेवाले ट्रेडरों को बाजार में हाथ डालना चाहिए। जब भी और जैसे ही बाजार यू-टर्न लेगा, स्टॉक्स के भाव सुधरेंगे और यहां तक कि वे हमारी उम्मींद से भी परे जा सकते हैं। हमने औरों की तुलना में रक्षात्मक रणनीति अपना रखी है।
हम अधिक पी/ई वाले शेयरों को लेकर नकारात्मक राय रखते हैं। ऑटो व बैंकिंग से भी हम दूर रहने की सलाह दे चुके हैं। अभी तक कहा जा रहा था कि केवल एक ग्रुप के शेयरों में निवेश आपको बचा सकता है। लेकिन आपने देखा कि सबसे ज्यादा नुकसान इसी ग्रुप में हुआ है। हां, बी ग्रुप में तरलता या लिक्विडिटी कम है। लेकिन इनमें ए ग्रुप की बनिस्बत कम नुकसान हुआ है। फिर भी निवेश करने का फैसला तो केवल और केवल आपका ही होगा। हम तो बस सलाह दे सकते हैं जिसकी तह में पैठना भी आपका काम है।