केईसी इंटरनेशनल:खेल हलाल-दलाल

केईसी इंटरनेशनल। अंतरराष्ट्रीय मौजूदगी रखनेवाली आरपीजी समूह की मुख्य कंपनी। 40-45 फीसदी धंधा भारत से, बाकी बाहर से। करीब महीने भर पहले 400 करोड़ रुपए के नए ऑर्डर मिले। उससे हफ्ते भर पहले जून 2011 की तिमाही के नतीजों से सामने आया कि उसकी बिक्री 20.9 फीसदी और शुद्ध लाभ 25.4 फीसदी बढ़ा है। तब तक उसके पास 8116 करोड़ रुपए के अग्रिम ऑर्डर थे। अब 8516 करोड़ के हो गए हैं। साल भर पहले अमेरिका में किया गया अधिग्रहण अब रंग लाने लगा है।

इतनी सारी सकारात्मक खबरों के बावजूद कल इसके शेयर ने 57.05 रुपए पर 52 हफ्तों की नई तलहटी पकड़ ली। बीएसई (कोड – 532714) में 5.26 फीसदी गिरकर 57.65 रुपए और एनएसई (कोड – KEC) में 5.13 फीसदी गिरकर 57.30 रुपए पर बंद हुआ है। कमाल की बात है कि ठीक साल भर पहले 6 सितंबर 2010 को यह 52 हफ्ते के शीर्ष 111 रुपए पर था। इतनी तीखी गिरावट तब आई है कि जब इस स्टॉक में स्वतंत्र विश्लेषकों की तरफ से बराबर निवेश करने की सिफारिशें आ रही हैं। पी एन विजय ने करीब दो महीने पहले कहा था कि केईसी इंटरनेशनल अगले 12 महीनों में 120 रुपए तक जा सकता है। अर्थकाम ने भी मई में कंपनी की मूलभूत मजबूती के आधार पर इसमें निवेश की सिफारिश की थी। तब यह शेयर 80.50 रुपए पर था।

वैसे हमने कहा था कि इसमें निवेश को फलने-फूलने के लिए कम से कम 18 महीने देने चाहिए। लेकिन सवाल उठता है कि चार महीने में यह 28.5 फीसदी से ज्यादा क्यों गिर गया? ऐसा भी नहीं कि कंपनी पर कर्ज का कोई भारी बोझ है। बल्कि, पिछले साल सितंबर मे उसने अमेरिकी कंपनी एसएई टावर्स का अधिग्रहण 9.5 करोड़ डॉलर का ऋण लेकर किया था। इस ऋण की पहली किश्त दिसंबर 2012 से शुरू होनी है। लेकिन कंपनी ने एसएई टावर्स की कमाई से ही करीब डेढ़ साल पहले 50 लाख डॉलर का प्री-पेमेंट कर दिया।

गौरतलब है कि एक समय उस्ताद लोग नवंबर 2007 में इस शेयर को 184 रुपए तक उठा ले गए थे। फिर दिसंबर 2008 में गिराकर 21.73 रुपए तक गिरा ले गए। आखिर उस्तादों का खेल बाजार के नियमों के हिसाब से इतना अतार्किक क्यों है? अगर ऐसा ही चलना है कि शेयर बाजार के होने का मतलब ही क्या है? फिर सेबी जैसी बाजार नियामक संस्था कर क्या रही है? इस तरह से तो बाजार का विकास नहीं किया जा सकता!!!

लेकिन इस हकीकत से आंखें भी नहीं चुराई जा सकतीं। इसी के बीच निवेश करना है और निवेश से कमाना भी है। इसलिए इसी दलदली पानी में तैरना भी सीखना होगा। केईसी इंटरनेशनल की 51.42 करोड़ रुपए की इक्विटी दो रुपए अंकित मूल्य के शेयरों में बंटी है। इसमें से प्रवर्तकों के पास 41.76 फीसदी और पब्लिक के पास 58.24 फीसदी शेयर हैं। पब्लिक के हिस्से में से एफआईआई के पास फिलहाल कंपनी के 3.35 फीसदी और डीआईआई के पास 39.74 फीसदी शेयर हैं। साल भर पहले एफआईआई के पास कंपनी के 5.80 फीसदी शेयर और डीआईआई के पास 37.99 फीसदी शेयर थे। क्या एफआईआई की बिकवाली इतनी भारी पड़ी कि डीआईआई की खरीद उसे बेअसर नहीं कर सकी?

यह तो दिख रहा है। लेकिन जो नहीं दिख रहा, उसका पता लगाना जरूरी है। और, यह पता हम-आप नहीं, वही लगा सकता है कि जिसके पास शेयरों की खरीद-बिक्री के सारे आंकड़े और खरीदने-बेचनेवालों की सारी जानकारी होगी। स्टॉक एक्सचेंजों के पास ये सारा डाटा रहता है और ये सारा डाटा सेबी जब चाहे, उनसे ले सकती है। हमारा तो यही मानना है कि सेबी अगर वाकई पूंजी बाजार को विकसित करने का अपना दायित्व निभाना चाहती है तो उसे पता लगाकर आम निवेशकों को बताना चाहिए कि सारी सकारात्मकता के बावजूद कंपनियों के शेयर पिटते क्यों रहते हैं? अगर यह बाजार शक्तियों का खेल है तो ये शक्तियां क्या हैं, इनकी शिनाख्त जरूरी है। तब तक भोले-भाले निवेशकों को शेयर बाजार में खींचकर हलाल करवाने की दलाली का क्या मतलब है?

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