जब भी कभी रिजर्व बैंक मौद्रिक नीति या उसकी समीक्षा पेश करनेवाला होता है तो उसके हफ्ते दस-दिन पहले से दो तरह की पुकार शुरू हो जाती है। बिजनेस अखबारों व चैनलों पर एक स्वर से कहा जाता है कि ब्याज दरों को घटाना जरूरी है ताकि आर्थिक विकास की दर को बढ़ाया जा सके। वहीं रिजर्व बैंक से लेकर राजनीतिक पार्टियों व आम लोगों की तरफ से कहा जाता है कि मुद्रास्फीति पर काबू पाना जरूरी है जिसके लिए ब्याज दरों को ऊंचा रखना पड़ेगा। धन महंगा होगा तो लोग आसानी से खर्च नहीं कर पाएंगे और खर्च नहीं कर पाएंगे तो बाजार में किसी सेवा या माल की मांग घट जाएगी। लोग कम खरीदेंगे तो उस चीज की महंगाई पर लगाम लगेगी। नतीजतन मुद्रास्फीति नीचे आ जाएगी।
इस चिकचिक के बीच कुछ महीनों पहले रिजर्व बैंक के गवर्नर दुव्वरि सुब्बाराव ने खीझकर कहा था कि बिजनेस और उद्योग-धंधों के लोग बराबर ब्याज दर घटाने का शोर मचाते हैं। लेकिन वे ये नहीं देख पाते कि ब्याज घटने से देश के करोड़ों बचतकर्ताओं को कितना नुकसान होता है। अभी हाल में उन्होंने मुद्रास्फीति पर नायाब उदाहरण देकर नई ही बात पेश कर दी। उनका कहना था कि बीस साल पहले जब उनके सिर पर ज्यादा बाल थे, तब बाल कटवाने के लिए उन्हें 25 रुपए देने पड़ते थे। लेकिन बाल कम होने पर यह रकम बढ़कर 50 रुपए हो गई। अब, जबकि उनके सिर पर बाल न के बराबर रह गए हैं, तब उन्हें हेयरकट के लिए 150 रुपए देने पड़े रहे हैं। उन्होंने यह बात तो मजाकिया अंदाज में कही, लेकिन फिर गंभीर होते हुए कहा, “मुझे यह तय करने में बड़ी मुश्किल हो रही है कि इसमें से कितना मुद्रास्फीति के चलते हैं और कितनी रकम मुझे नाई को गवर्नर की चांद के बालों को काटने की सुविधा के लिए बतौर प्रीमियम देनी पड़ रही है।”
फिलहाल जून महीने में थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर मई के 7.55 फीसदी से थोड़ा-सा घटकर 7.25 फीसदी पर आ गई है। यह पांच हफ्ते का न्यूनतम स्तर है। लेकिन रिजर्व बैंक के लिए यह इतना संतोषजनक स्तर नहीं है कि वो मंगलवार, 31 जुलाई को मौद्रिक नीति की पहली तिमाही समीक्षा में ब्याज दरों को घटाने का फैसला कर सके। इस समय बैंकिंग सिस्टम में नकदी की कमी है और बैंक बराबर रिजर्व बैंक से उधार ले रहे हैं। इसलिए ब्याज दर की निर्धारक दर रेपो दर है जो इस समय 8 फीसदी है। कहा जा रहा है कि रिजर्व बैंक सीआरआर को 4.75 फीसदी की मौजूदा स्तर से घटाकर सिस्टम में नकदी या तरलता बढ़ा सकता है। लेकिन ज्यादा धन का प्रवाह मुद्रास्फीति को बढ़ा देगा। इसलिए शायद रिजर्व बैंक सीआरआर में कमी से भी परहेज करें।
दूसरी तरफ देश की आर्थिक विकास दर या जीडीपी के बढ़ने की दर घटती जा रही है। जनवरी-मार्च की तिमाही में यह 5.3 फीसदी रही है। औद्योगिक विकास दर या आईआईपी सूचकांक इस साल मई में महज 2.4 फीसदी बढ़ा है, जबकि साल भर पहले यह 6.2 फीसदी बढ़ा था। इसलिए उद्योग-धंधे के लोग कह रहे हैं कि अब तो रिजर्व बैंक अपना हठी रवैया छोड़कर ब्याज दरों को घटा देना चाहिए। लेकिन रिजर्व बैंक का मानना है कि मुद्रास्फीति को थामने के लिए हमें थोड़े विकास की कुर्बानी देनी पड़ेगी। अगर वह ब्याज दर घटा देता है तो इससे पहले से बढ़ी मुद्रास्फीति और बढ़ जाएगी।
ऐसे में क्या करना सही रहेगा? बिजनेस अखबारों व चैनलों के शोर से अलग हटकर देखें तो इस पर दो तरह की राय आएगी। जो लोग तय वेतन या कमाई पर काम करते हैं, वे निश्चित रूप से कहेंगे कि मुद्रास्फीति नहीं बढ़नी चाहिए क्योंकि कमाई समान रहने पर चीजें जब महंगी हो जाती हैं तो उसी अनुपात में उनकी जेब का सुराख बढ़ जाता है, घर का सारा बजट बिगड़ जाता है। आम चैनल हल्ला मचाने लगते हैं कि महंगाई डाइन लोगों को खाए चली जा रही है। सारा मध्यवर्ग, नौकरीपेशा लोग और गरीब तबके के लिए मुद्रास्फीति अदृश्य टैक्स का काम करती है। यहां तक कि महंगाई भत्ता पानेवाले सरकारी बाबू व अफसर तक मुद्रास्फीति के बढ़ने पर त्रस्त हो जाते हैं।
वहीं, दूसरी तरफ मान लीजिए कि कोई व्यक्ति किसी कंपनी का सेल्स एक्जीक्यूटिव है। वो जितना ज्यादा बेचता है, उतना ज्यादा उसे कमीशन मिलता है। अर्थव्यवस्था बढ़ेगी, जीडीपी बढ़ेगा तो माल व सेवाओं की बिक्री में इजाफा होगा और हमारे इस सेल्स एक्जीक्यूटिव का कमीशन भी बढ़ जाएगा। इसलिए यह शख्स विकास दर के घटने से दुखी होगा और चाहेगा कि रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति को थामने के बजाय विकास दर बढ़ाने की चिंता करे। इसी तरह बिजनेस और उद्योग धंधे के लोग भी चाहेंगे कि आर्थिक विकास को तवज्जो दी जाए। जो लोग शेयर बाजार से जुड़े हैं, चाहे निवेशक या ब्रोकर के रूप में, वे भी चाहेंगे कि विकास दर को प्रमुखता दी जाए क्योंकि इससे कंपनियों का धंधा बढ़ेगा और नतीजतन शेयरों के भाव बढ़ सकते हैं।
लेकिन जिन आम लोगों ने एफडी जैसे ऋण प्रपत्रों में निवेश कर रखा है, वे तो यही चाहेंगे कि ब्याज से उन्हें ज्यादा कमाई हो। इसके लिए जरूरी है कि रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति को थामने के लिए ब्याज दरों को ऊंचा बनाए रखे। इस तरह सच कहें तो विकास बनाम मुद्रास्फीति का झगड़ा कोई किताबी झगड़ा नहीं है। यह रिजर्व बैंक के किसी गवर्नर या अर्थशास्त्री के दिमाग की उपज नहीं है। बल्कि, यह अवाम के दो तबकों के मची खींचतान को दर्शाता है। वैसे, किसी भी आर्थिक अवधारणा को एकसार या निष्पक्ष मानना उचित नहीं होता। हमें उसकी पक्षधरता का ध्यान रखना होता है। इसलिए हर अर्थशास्त्री से पूछना पड़ता है कि पार्टनर! तेरी राजनीति क्या है?