अजीब विडंबना है। ऑप्शन मूल्य के ब्लैक-शोल्स मॉडल को भले ही दो नोबेल पुरस्कार विजेता गणितज्ञों ने तैयार किया हो, पर यह पूरे सच को नहीं पकड़ पाता। ऑप्शन का स्ट्राइक मूल्य, संबधित स्टॉक/इंडेक्स का बाज़ार मूल्य, रिस्क-फ्री ब्याज की दर और एक्सपायरी में बची अवधि या लाभांश यील्ड जैसे कारकों के आंकड़ों को लेकर किसी भ्रम या दुविधा की गुंजाइश नहीं। पर इस फॉर्मूले से ऑप्शन का जो भाव निकलता है, वह बाज़ार में चल रहे भाव से कभी मेल नहीं खाता क्योंकि सालाना वोलैटिलिटी का आंकड़ा सब गड़बड़ कर डालता है।
इसलिए ऑप्शन का भाव निकालने के लिए अगर कोई इस फॉर्मूले का इस्तेमाल करता है तो वह धोखा खा जाएगा। इससे बचने के लिए ट्रेडरों ने दूसरा जुगाड़ निकाला कि ऑप्शन का बाज़ार भाव लिख लिया जाए। फिर बाकी आंकडे जस का तस रखते हुए वोलैटिविटी के आंकड़े को इस तरह बदलते हुए निकाला जाए कि ऑप्शन का भाव बाज़ार भाव के करीब-करीब बराबर निकल आए। इस तरह वोलैटिलिटी का जो आंकडा निकलेगा, उसे इम्प्लायड वोलैटिलिटी कह दिया गया। अंब चूंकि ब्लैक-शोल्स फॉर्मूले से ऑप्शन का भाव नहीं, बल्कि इम्प्लायड वोलैटिलिटी निकाली जा सकती है तो लोगबाग मजबूरी में इम्प्लायड वोलैटिलिटी को आधार बनाकर ऑप्शन ट्रेडिंग करने लगे।
कैसे की जाती है इम्प्लायड वोलैटिलिटी आधारित यह ऑप्शन ट्रेडिंग? पहली बात तो यह है कि आपको स्टॉक या इंडेक्स की ऐतिहासिक वोलैटिलिटी की गणना से भागना नहीं है। आपको संबंधित आस्ति की दस दिन और बीस दिन की ऐतिहासिक वोलैटिलिटी निकालनी चाहिए। साथ ही निकालना चाहिए कि पिछले छह महीने में दस दिन की अधिकतम वोलैटिलिटी और बीस दिन की अधिकतम वोलैटिलिटी क्या रही है। इसके बाद इसकी तुलना इम्प्लायड वोलैटिलिटी से करनी चाहिए।
अगर ऐतिहासिक वोलैटिलिटी के इन आंकड़ों को डालने से ऑप्शन का भाव बाज़ार में उसके भाव से कम निकलता है तो जाहिर है कि एडजस्ट करने पर इम्प्लायड वोलैटिलिटी ज्यादा निकलेगी। आपको लग सकता है कि ऑप्शन का भाव ज्यादा ही चढ़ा हुआ है तो उसे आप बेचकर मुनाफा कमाने की सोच सकते हैं। लेकिन इसमें आपको धोखा हो सकता है क्योंकि इम्प्लायड वोलैटिलिटी का ज्यादा होने का मतलब यह भी हो सकता है कि कंपनी या बाज़ार में कोई अच्छी खबर आनेवाली हो। वहीं, अगर इम्प्लायड वोलैटिलिटी ऐतिहासिक वोलैटिलिटी के उक्त चारों आंकड़ों के कहीं बीच में है, उनकी रेंज मे है तो आप ऑप्शन बेचने की सोच सकते हैं।
वैसे इम्प्लायड वोलैटिलिटी आधारित ऑप्शन ट्रेडिंग में दो ग्रीक्स – डेल्टा और गामा की मदद ली जाती है। डेल्टा न्यूट्रल और गामा न्यूट्रल रणनीति अपना कर वोलैटिलिटी आधारित ट्रेडिंग की जाती है। असल में ऑप्शन ट्रेडिंग की एक रणनीति को बुल स्प्रेड कहा जाता है। इसमें कम इम्प्लायड वोलैटिलिटी और ज्यादा इम्प्लायड वोलैटिलिटी पर नज़र रखते हुए ट्रेडिंग की जाती है। लेकिन इस समझने के लिए पहले बुल स्प्रेड को समझना ज़रूरी है जिसे हम आगे समझने की कोशिश करेंगे। फिर यह भी देखेंगे कि कैसे बुल स्प्रेड रणनीति के साथ वोलैटिलिटी को मिलाया जाता है।
यूं ही चलते-चलते बता दें (जिसे हम बाद में उदाहरण से समझेंगे) कि अगर इम्प्लायड वोलैटिलिटी कम दिख रही है तो आपको ऐट द मनी या एटीएम (ऑप्शन का स्ट्राइक मूल्य आस्ति के बाज़ार के मूल्य के बराबर) कॉल ऑप्शन खरीदना चाहिए और आउट ऑफ द मनी या ओटीएम (स्ट्राइक मूल्य आस्ति के बाज़ार मूल्य से कम) कॉल ऑप्शन बेचना चाहिए। अगर पुट ऑप्शन का मसला है तो आपको एटीएम पुट ऑपशन खरीदना चाहिए, जबकि इन द मनी या आईटीएम (स्ट्राइक मूल्य आस्ति के बाज़ार मूल्य से ज्यादा) ऑप्शन बेचने चाहिए।
कम इम्प्लायड वोलैटिलिटी की स्थिति में हम अक्सर पाते हैं कि एटीएम कॉल ऑप्शन का भाव वाजिब चल रहा होता और हम उसे खरीदना गवारा कर सकते है। वहीं, ओटीएम कॉल के भाव भी ठीकठाक स्तर पर हो सकते हैं जिन्हें बेचकर हम ऑप्शन की शुद्ध लागत कम कर सकते हैं। मामला काफी उलझा हुआ लग रहा होगा। इसलिए इसे बारीकी से खोलकर बाद में कायदे से समझना ज़रूरी है।
फिलहाल आज के शुरुआती सवाल पर लौटते हैं कि जब ब्लैक-शोल्स फॉर्मूला सच्चाई को नहीं पकड़ता तो उसे कितने काम का माना जाए? मगर सच्चाई यह भी है कि तमाम कमियों के बावजूद ब्लैक-शोल्स फॉर्मूला ही ऑप्शन प्राइसिंग का बेंचमार्क मॉडल बना हुआ है। ऑप्शन किन-किन कारकों से प्रभावित होता है, उन सभी ग्रीक प्रतीकों की गणना इसी फॉर्मूले से की जाती है। यही नहीं, जिस इम्प्लायड वोलैटिलिटी को लेकर सबसे ज्यादा समस्या है, उसकी गणना भी इसी फॉर्मूले से की जाती है। इसलिए सच कहें तो ब्लैक-शोल्स मॉडल ही ऑप्शन के मूल्य निर्धारण में हर तरफ इस्तेमाल किया जा रहा है और वही सबसे ज्यादा प्रासंगिक भी है।
फिर भी ऑप्शन प्राइसिंग के कुछ वैकल्पिक मॉडल भी है। इनमें से एक है स्टोकास्टिक वोलैटिलिटी मॉडल। इस मॉडल में वोलैटिलिटी स्थिर नहीं हैं, बल्कि वह बराबर समय के साथ बदलती रहती है। उसका भी अपना स्टैंडर्ड डेविएशन होता है जो दिखाता है कि वह औसत के कितना इधर-इधर होती है। वोलैटिलिटी बदलती है तो ऑप्शन के भाव भी जाहिरा तौर पर बदल जाते हैं। ऑप्शन के भाव निर्धारित करने का दूसरा वैकल्पिक मॉडल है जिसे जम्प मॉडल कहते हैं। इस मॉडल में माना जाता है कि स्टॉक के मूल्य कभी भी उछाल मार सकते हैं।