पिसान अवधी का शब्द है जिसका अर्थ है आटा। वाकई, हमारी केंद्र सरकार ने दाल पर ऐसा रवैया अपना रखा है जिससे किसानों का पिसान निकल गया है। इससे यही लगता है कि या तो वह घनघोर किसान विरोधी है या खेती-किसानों के मामले में उसके कर्ताधर्ता भयंकर मूर्ख है। वैसे, शहरी लोग बड़े खुश हैं कि अरहर या तुअर की जो दाल साल भर पहले 180-200 रुपए किलो बिक रही थी, वह अब 60-70 रुपए किलो में मिल रही है। लेकिन इस स्थिति ने किसानों के लिए कितनी त्रासदी पैदा कर दी है, इसका अंदाज़ बहुत ही कम लोगों को होगा।
गौर करने की बात यह है कि हाल के सालों (वित्त वर्ष 2012-13 से 2015-16) में देश में दालों की खपत 210 लाख टन से 230 लाख टन तक दर्ज की गई, जबकि कुल उत्पादन 164 लाख टन से 193 लाख टन तक का हुआ। उत्पादन से ज्यादा मांग होने से दाल के दाम भी चढ़े और बाहर से आयात भी करना पड़ा। लेकिन पिछले साल, वित्त वर्ष 2016-17 में देश में अब तक का सबसे जबरदस्त दाल उत्पादन हुआ। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इसकी मात्रा 229.50 लाख टन रही है। यानी, मांग के बराबर तकरीबन पूरा उत्पादन हो गया। दालों के मामले में देश का इस तरह आत्मनिर्भर बन जाना बड़ी उपलब्धि थी। केंद्र सरकार ने साल 1989 में दालों के टेक्नोलॉज़ी मिशन के तहत देश को आत्मनिर्भर बनाने का लक्ष्य रखा था। उस दौरान 1989-90 में देश में दालों का कुल उत्पादन 128.60 लाख टन था। सत्ताइस साल बाद ही सही, 2016-17 में इसका 229.50 लाख टन पर पहुंचना बड़ी बात थी।
इसकी तीन खास तात्कालिक वजहें थीं। एक तो लगातार दो साल के सूखे के बाद मानसून सामान्य रहा था। दो, खरीफ की बोवाई के वक्त, यानी मई-जुलाई 2016 से कुछ महीने पहले से बाज़ार में दाल के दाम में आग लगी हुई थी जिसके चलते किसान दलहन की खेती करने के लिए स्वाभाविक रूप से प्रेरित हुए। तीसरे, जनता के रोष और विपक्ष के राजनीतिक दबाव के सरकार ने खरीफ की दालों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 9.2 प्रतिशत और रबी की दालों का एमएसपी 16.2 प्रतिशत बढ़ा दिया था। इससे दालों की खेती के प्रति किसानों को उत्साह बढ़ गया।
नतीजतन, किसानों ने जमकर दलहन की खेती की। खरीफ में दालों की खेती का रकबा सामान्य से करीब-करीब 36 प्रतिशत बढ़ गया। साथ ही 2016-17 के दौरान खरीफ की दालों का उत्पादन लगभग 70 प्रतिशत बढ़ गया, जबकि पूरे साल का दाल उत्पादन करीब 40 प्रतिशत बढ़ गया। कायदे से होना यह चाहिए था कि इतने बम्पर उत्पादन के साल में सरकार दालों का आयात या तो रोक देती या बहुत कम कर देती। लेकिन केंद्र सरकार या तो जान-बूझकर या लापरवाही में सोई पड़ी रही। देश में 2016-17 के दौरान 66 लाख टन दालों का आयात किया गया, वो भी बिना किसी आयात शुल्क के। नतीजतन, घरेलू बाज़ार में दालों की कुल उपलब्धता 295.55 लाख टन हो गई, जबकि खपत 220 से 230 लाख टन के बीच ही बनी रही।
कोई अचंभा नहीं कि सरकार की इस ‘मेहरबानी’ के चलते खपत से कहीं ज्यादा सप्लाई होने के कारण दालों के दाम थोक बाज़ार में धराशाई हो गए। यह सच है कि सरकार की तरफ से पहली बार किसानों से 16 लाख टन दालों की खरीद एमएसपी पर की गई। लेकिन 16 लाख देशी खरीद पर 66 लाख टन की विदेशी खरीद भारी पड़ गई। बाज़ार में 50 लाख टन के ज्यादा माल ने किसानों की उस सौभाग्य पर पानी फेर दिया, जिसे हासिल करने का सपना उन्होंने मई-जून से लेकर सितंबर-अक्टूबर 2016 के दौरान दलहन की बोवाई करते समय देखा था। ज़रा सोचिए, किसानों के इस दुर्भाग्य का दोषी कौन है। यकीनन, बाज़ार है। लेकिन बाज़ार को इस हालत में पहुंचाया किसने? उस सरकार ने जो किसानों की हितैषी होने का दम भरती है।
अरहर की दाल का एमएसपी 5050 रुपए प्रति क्विंटल रखा गया था। लेकिन फरवरी 2017 में महाराष्ट्र की अकोला मंडी में उसके थोक भाव 3914 रुपए और कर्नाटक की हुबली मंडी में 3256 रुपए प्रति क्विंटल चल रहे थे। इसी तरह मूंग का एमएसपी 5225 रुपए प्रति क्विंटल था, जबकि राजस्थान की पाली मंडी में इसके भाव 3000 रुपए और टोंक मंडी में 3400 रुपए प्रति क्विंटल तक घट गए। मध्य प्रदेश की हरदा मंडी में उड़द का भाव 3690 और रायसेन मंडी में 4000 रुपए प्रति क्विंटल रहा, जबकि सरकार की तरफ से उड़द का घोषित एमएसपी 5000 रुपए प्रति क्विंटल था। जाहिर है कि देश में आयातित दालों ने बाज़ार और एमएसपी का लाभ किसानों तक पहुंचने नहीं दिया।
अभी चालू वित्त वर्ष 2017-18 में केंद्र सरकार ने खरीफ के मार्केटिंग सीज़न के लिए मूंग का एमएसपी 5575 रुपए प्रति क्विंटल घोषित किया है। इससे यही जाहिर होता है कि सरकार में बैठे लोग या तो किसानों की आफत से अनजान हैं या वे जान-बूझकर किसानों की कमर तोड़ने में लगे हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस बार खरीफ में मूंग की खेती पर किसानों की अनुमानित लागत 5700 रुपए प्रति क्विंटल आई है। उससे कम एमएसपी रखने का क्या मतलब है? लगता है कि या तो इस साल खरीफ सीजन की दालों का उत्पादम कम होगा या दालों के भाव में ज्वार-भांटे का सिलसिला फिर चल निकलेगा।
यह भी विचित्र बात है कि जब किसानों के पास दाल बची नहीं है, तब केंद्र सरकार ने शुक्रवार, 15 सितंबर 2017 को देर शाम एक दशक से ज्यादा वक्त से अरहर, उड़द और मूंग की दाल के निर्यात पर लगा बैन उठा लिया है। सरकार का कहना है कि यह बैन साल 2006 में रिटेल बाज़ार में कीमतों को बढ़ने से रोकने के लिए लगाया गया था। अब घटी हुई कीमतों को वाजिब स्तर पर लाने के लिए इन दालों के निर्यात की इजाजत दे दी गई है। लेकिन गहराई से देखें तो सरकार के इस फैसले का लाभ व्यापारियों को ही मिलेगा और उन्होंने इसका स्वागत भी किया है। किसानों को शायद ही इनका कोई लाभ मिले। वैसे भी कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, किसानों ने इस बार खरीफ में दालों की 3.91 प्रतिशत कम खेती की है। पिछली बार खरीफ में दालों की खेती का क्षेत्रफल 144.84 लाख हेक्टेयर था, जो इस बार 139.17 लाख हेक्टेयर रहा है।
सरकार ने अरहर, मूंग व उड़द की दाल के निर्यात पर लगा बैन अगर मार्च के आसपास उठा लिया होता तो शायद किसानों को घाटा नहीं सहना पड़ता। रेटिंग एजेंसी क्रिसिल की एक ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक चने को छोड़कर बाकी सभी दालों पर किसानों का लाभ मार्जिन 2016-17 में औसतन 30 प्रतिशत घट गया। इसकी मुख्य वजह अधिक उत्पादन और आयात के साथ ही उनके निर्यात व निजी स्टॉकहोल्डिंग लगी बंदिश थी। इस दौरान अधिकांश दालों के दाम छह साल में सबसे ज्यादा गिर गए। वहीं, मजे की बात यह है कि इसी अवधि में चने के दाम बराबर बढ़ते रहे। इसकी वजह यह है कि देश से चने के निर्यात पर कोई बंदिश नहीं लगी हुई है।
क्रिसिल का कहना है कि अभी जो नीतिगत स्थिति है, उसमें दालों के दाम में ज्वार-भांटे का दो-तीन साल का चक्र चल रहा है। वित्त वर्ष 2005-06 से लेकर 2017-18 के पहले चार महीनों तक चार ऐसे चक्र चल चुके हैं। ताजा चक्र 2012-13 में शुरू हुआ और नवंबर 2015 में दालों के दाम 49 प्रतिशत चढ़कर चोटी पर पहुंच गए। उसके बाद जुलाई 2017 में वे 32.6 प्रतिशत लुढ़क गए। इस चक्र में देश का किसान बुरी तरह पिस रहा है।
आखिर, इस समस्या का समाधान क्या है? जाने-माने कृषि विशेषज्ञ अशोक गुलाटी का कहना है कि एक तो सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि कभी भी दालों का आयातित मूल्य देश में निर्धारित एमएसपी से कम न हो। नहीं तो एमएसपी का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। मसलन, 2016-17 में पीली दाल का आयात लगभग 2550 रुपए प्रति क्विंटल के भाव पर किया गया, जबकि देश में इसका एमएसपी 3500 रुपए प्रति क्विंटल था। अगर इसके आयात पर शून्य के बजाय सरकार ने 30-40 प्रतिशत शुल्क लगा दिया होता तो किसानों पर उतनी मार नहीं लगती।
दूसरे, सरकार ने दाल निर्यात पर लगी बंदिश उठाकर अच्छा कदम उठाया है। इसे जारी रखना चाहिए। तीसरे, दालों को कृषि उत्पाद विपणन समिति अधिनियम या एपीएमसी एक्ट से बाहर कर दिया जाना चाहिए ताकि किसान जहां चाहें, वहां अपनी दाल बेच सकें। चौथे, दाल पर स्टॉक होल्डिंग संबंधी बंदिशों को हटा लिया जाना चाहिए। और, पांचवां सुझाव यह है कि हर तरह की दाल में फ्यूचर ट्रेडिंग या वायदा कारोबार की इजाजत दे दी जानी चाहिए ताकि किसान बाज़ार के भावी रुझान को देखते हुए वर्तमान में उसकी खेती का वाजिब फैसला कर सकें।