सरकार भ्रामक, झूठे, अनुचित और गुमराह करने वाले विज्ञापनों पर रोक लगा सकती है। यह कहना है उपभोक्ता मामलों के मंत्री प्रोफेसर के वी थॉमस का। उन्होंने गुरुवार को राजधानी दिल्ली में आयोजित एक सरकारी सेमिनार में कहा कि विज्ञापनकर्ता अपने लक्षित बाजार तक पहुंचने के लिए कई बार कानूनी और सामाजिक नियमों का उल्लंघन करते हैं। भारत का संविधान अभिव्यक्ति की आजादी देता है। फिर भी सरकार को व्यावसायिक विज्ञापनों को नियंत्रित करने का अधिकार है।
उन्होंने कहा कि किसी विज्ञापन को ऐसी स्थिति में भ्रामक कहा जा सकता है जब वह उपभोक्ता की खरीदारी पर अनुचित असर डाले। भारत में सिगरेट, शराब, पान-मसाला के विज्ञापनों को टीवी चैनलों में जगह मिल जाती है जबकि सरकार ने इन पर प्रतिबंध लागू कर रखा है, क्योंकि ये सभी स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक हैं। प्रोफेसर थॉमस ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस तरह के अनुचित और गुमराह करने वाले विज्ञापनों के खिलाफ बने अनेक कानूनों के बावजूद उपभोक्ताओं का शोषण हो रहा है।
मंत्री महोदय ने इस तथ्य पर जोर दिया कि बच्चों के लिए विज्ञापनों पर होने वाले खर्च में पिछले पांच से दस वर्षों के दौरान बढ़ोतरी होती गई है और टेलीविज़न पर जितने विज्ञापन दिखाए जाते हैं, उनमें से दो तिहाई खाने-पीने की चीजों के बारे में होते हैं। स्वीडन, नॉर्वे, जर्मनी, नीदरलैंड और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में बच्चों के लिए जारी होने वाले विज्ञापनों पर अनेक कड़े प्रतिबंध लगाए जाते हैं। लेकिन भारत में स्व-नियंत्रण का बेजा फायदा उठाया जा रहा है।
भारत में स्व-नियंत्रण के लिए विज्ञापन मानक परिषद (एएससीआई) बनी हुई है। लेकिन उसके पास ब्रिटेन की एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी (एएसए) की तुलना में कम शिकायतें आती हैं। अगर एएससीआई को कुछ सौ शिकायतें प्राप्त होती है तो एएसए को दस हजार से ज्यादा। भारत में सही तस्वीर अक्सर इस बात से नहीं मिलती है कि कितनी शिकायतें प्राप्त हुई और न ही उनसे उपभोक्ता के असंतुष्ट होने के स्तर का पता चल पाता है। इसके कारण हैं जागरूकता स्तर कम होना और उपेक्षा।
प्रोफेसर थॉमस ने बताया कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अनुच्छेद-2 (आर) में अनुचित व्यापार पद्धति की व्यापक परिभाषा दी गई है और अनुच्छेद-14 उन निर्देशों से संबंधित है जो ऐसे व्यवहार के बारे में अदालत जारी कर सकती है। इस दिशा में उपभोक्ता अदालतों ने शानदार काम किया है और वह भ्रामक विज्ञापनों से निपटने में कामयाब हुई हैं। लेकिन उपभोक्ता अदालतों के पास न तो अधिकार हैं और न ही छानबीन करने की मूलभूत सुविधाएं। उनके पास अन्वेषण का कोई तंत्र भी नहीं है। वे सिर्फ प्राप्त शिकायतों पर फैसला सुना सकती है। लेकिन उपभोक्ता अदालतें अंतरिम आदेश जारी करके भ्रामक विज्ञापनों को तब तक बंद करा सकती हैं, जब तक मुक़दमे का फैसला नहीं हो जाता। वे इनके चलते हुए नुकसान की भरपाई के आदेश भी जारी कर सकती हैं।