दूसरे सरकारी नेताओं को तो छोड़िए, हमारे वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी तक दबी जुबान से कहते रहे हैं कि खाने-पीने की चीजों के महंगा हो जाने की एक वजह लोगों की बढ़ी हुई क्रयशक्ति है। खासकर महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गांरटी जैसी योजनाओं के चलते गरीब लोगों की तरफ से खाद्यान्नों की मांग बढ़ गई। वे पहले से ज्यादा खाने लगे हैं जिसका असर खाद्य मुद्रास्फीति के बढ़ने के रूप में सामने आया है। लेकिन रिजर्व बैंक ने इस सरल और सतही मान्यता में पलीता लगा दिया है।
मंगलवार को जारी अपनी सालाना रिपोर्ट में रिजर्व बैंक ने कहा है कि 1990-2010 के दौरान जहां देश की आबादी 1.9 फीसदी की औसत दर से बढ़ी है, वहीं खाद्यान्न उत्पादन की औसत वृद्धि दर 1.6 फीसदी ही रही है। यही वजह है कि 1990 में देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की उपलब्धता 472.6 ग्राम प्रतिदिन थी, जबकि 2008 आते-आते यह 7.74 फीसदी घटकर 436 ग्राम प्रतिदिन रह गई। इसलिए कृषि उत्पादकता को बढ़ाने पर जोर देना बहुत जरूरी हो गया है। पैदावार बढ़ाने के लिए निरंतर अनुसंधान और विस्तार गतिविधियों के साथ कृषि में निवेश बढ़ाना अपरिहार्य हो गया है। अभी तक हमारा अनुसंधान गिनी-चुनी फसलों तक सीमित है।
रिजर्व बैंक का कहना है कि अभी तक सरकार की नीति किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के जरिए दाम देने और उपभोक्ताओं को पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) के जरिए अनाज देने की रही है। लेकिन सरकार को को मिले जनधन का इस्तेमाल कृषि इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश के लिए किया जाना चाहिए। इससे निजी निवेश भी खिंचा चला आएगा और हमारे कृषि क्षेत्र की पूरी विकास संभावना को हासिल किया जा सकेगा। हमें मार्केटिंग का तंत्र भी बेहतर करना पड़ेगा। ऐसे इंतजाम करने पड़ेंगे ताकि भंडारण और परिवहन के दौरान कृषि उत्पाद बरबाद न हो जाएं। रिजर्व बैंक ने यह भी माना है कि इधर लोगों के उपभोग में दूध, फल-सब्जी, गोश्त, अंडे और मछली का हिस्सा बढ़ा है। इसलिए अच्छे पोषण के लिए जरूरी इन वस्तुओं का उत्पादन भी बढ़ाया जाना चाहिए।
सालाना रिपोर्ट में कहा गया है कि देश की अर्थव्यवस्था (सकल घरेलू उत्पाद, जीडीपी) में कृषि का योगदान घटकर भले गी 14.6 फीसदी रह गया है, लेकिन इससे इसकी अहमियत कम नहीं हो जाती है क्योंकि अब भी आबादी के 52 फीसदी हिस्से को इसी ने रोजी-रोजगार दे रखा है। दूसरे खाद्य पदार्थों की मुद्रास्फीति को कृषि उत्पादन बढ़ाए बिना नहीं रोका जा सकता। इस वित्तीय साल 2010-11 में अच्छे आर्थिक विकास के बावजूद मुद्रास्फीति बड़ी चिंता का विषय बनी हुई है।
रिजर्व बैंक ने सालाना रिपोर्ट में भी अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्ता का मसला उठाया है। उसका कहना है कि वैश्विक संकट के बाद से केंद्रीय बैंकों पर व्यवस्थागत निगरानी की जिम्मेदारी बढ़ गई है। तमाम नियामकों और सार्वजनिक सस्थाओं के बीच केंद्रीय बैंक इस जिम्मेदारी को निभाने में ज्यादा सक्षम होता है। ऐसी जिम्मेदारियों का कारगर ढंग से निभाने के लिए रिजर्व बैंक की संस्थागत स्वतंत्रता और स्वायत्तता महत्वूपर्ण हो गई है। उल्लेखनीय है कि सरकार ने संसद के इसी सत्र में एक बिल पास किया है जिसके जरिए वित्त मंत्री की अध्यक्षता में बनी समिति को रिजर्व बैंक समेत वित्तीय क्षेत्र की सभी नियामक संस्थाओं के ऊपर बैठा दिया गया है।