बात एकदम सीधी है। जो भी शेयर बाजार में निवेश नहीं करते, वे भारत की विकासगाथा के लाभ से वंचित है। लेकिन आश्चर्यजनक, किंतु सत्य यह है कि देश की 121 करोड़ की आबादी में से कम से कम 120 करोड़ लोग इस लाभ से वंचित हैं, जबकि ठीकठाक कमानेवाले भारतीय मध्य वर्ग की ही आबादी 15 करोड़ से ज्यादा है। सबको साथ लेनेवाले कौन-से समावेशी विकास की बात करती यह सरकार? देश की विकासगाथा को व्यापक जनाधार देने के लिए इक्कीस साल कोई कम नहीं होते! वह भी तब, जबकि तब के वित्त मंत्री ही अभी के प्रधानमंत्री हों!!
ऐसा क्यों हैं, इस पर आप अलग से सोचिएगा जरूर। फिलहाल तो आज की चर्चा। जैसे-जैसे निजी क्षेत्र की लिस्टेड कंपनियों में पब्लिक की न्यूनतम हिस्सेदारी 25 फीसदी करने की अंतिम तिथि, जून 2013 नजदीक आती जा रही है, वैसे-वैसे लोगों की दिलचस्पी उन कंपनियों में बढ़ती जा रही है जो ऐसा नहीं कर पाएंगी या नहीं करना चाहतीं। खासकर, बहुराष्ट्रीय कंपनियों में जिनके पास पूंजी की कोई तंगी नहीं और झंझट से बचने के लिए जिनके पास खुद को डीलिस्ट कराना सबसे आसान तरीका है। डीलिस्ट कराने पर इन कंपनियों को अपने बाकी शेयर निवेशकों से वापस खरीदने पड़ेंगे। माना जा रहा है कि वापस खरीद का यह मूल्य बाजार में चल रहे भाव से ज्यादा होगा तो बाजार में भी ऐसी कंपनियों के शेयर इधर भाव खाने लगे हैं।
ऐसी ही एक स्मॉल कैप बहुराष्ट्रीय कंपनी है फेयरफील्ड एटलस। इसकी 27.32 करोड़ रुपए की इक्विटी पूंजी में 83.81 फीसदी हिस्सेदारी अमेरिकी प्रवर्तक टीएच लाइसेंसिंग इंक की है। बाकी 4.95 फीसदी इक्विटी घरेलू निवेश संस्थानों (डीआईआई) और 0.03 फीसदी एफआईआई के पास हैं। इसके बाद बचे 11.11 फीसदी शेयर। इसमें से भी 2.03 फीसदी छोटे-मोटे 185 कॉरपोरेट निकायों के पास हैं। शेष 9.08 फीसदी शेयर आम पब्लिक के पास हैं जिनमें 40 अनिवासी भारतीयों और 27 बड़े निवेशकों के अलावा 5050 छोटे निवेशक (एक लाख रुपए से कम लगानेवाले) शामिल हैं जिनके पास कंपनी के मात्र 6.66 फीसदी शेयर हैं। अभी का तो पता नहीं, लेकिन 31 दिसंबर 2011 तक रिलायंस कैपिटल ट्रस्टी के पास कंपनी के 4.90 फीसदी शेयर थे।
कंपनी के कुल शेयरधारकों की संख्या 5321 है। इसमें से बड़े शेयधारक तो अपने शेयर बेचने से रहे क्योंकि उनमें इतनी समझ तो होगी कि डीलिस्ट होने पर उन्हें अपने निवेश का ज्यादा मूल्य मिलेगा। बाकी बचे 94.9 फीसदी छोटे निवेशक तो उनमें बहुतों को लगता होगा कि अब बेचकर निकल लें। कल कुछ होगा कि नहीं होगा, कौन जाने। उनकी सोच में दम भी है क्योंकि यह शेयर दिसंबर से फरवरी के बीच दो महीनों में ही दोगुने से ज्यादा चढ़ चुका है।
इसका दस रुपए अंकित मूल्य का शेयर दिसंबर में 62.20 रुपए तक नीचे चला गया था, जबकि बीते महीने 14 फरवरी को यह ऊपर में 134.90 रुपए तक चला गया जो 52 हफ्ते का उसका उच्चतम स्तर है। दो महीने में सीधे-सीधे करीब 117 फीसदी का रिटर्न! अगर एक साल पीछे चले जाएं तो यह रिटर्न 180 फीसदी से ज्यादा हो जाता है क्योंकि 17 मार्च 2011 को इस शेयर ने 48.15 रुपए की तलहटी पकड़ रखी थी। खैर, जो हुआ सो हुआ। जो बीत गया, सो बात गई। अभी क्या किया जा सकता है?
कल, 29 फरवरी 2012 को फेयरफील्ड एटलस का शेयर बीएसई (कोड – 520145) में 124.35 रुपए पर बंद हुआ है। कंपनी एनएसई में लिस्टेड नहीं है। फेयरफील्ड का ताल्लुक स्विटजरलैंड के ओयरलिकोन समूह से है। यह ऑटोमोबाइल व औद्योगिक गियर व सिस्टम बनाती है और वाहन कंपनियों को सीधे बेचती है। उत्तरी अमेरिका में इन उत्पादों की सबसे बड़ी निर्माता फेयरफील्ड मैन्यूफैक्चरिंग की भारतीय सब्सिडियरी है। भारत में इसके दो संयंत्र महाराष्ट्र के कोल्हपुर जिले के बेलगाम में हैं। एक संयंत्र भारतीय बाजार की जरूरत पूरी करता है तो दूसरा निर्यात के लिए माल बनाता है।
भारत में फेयरफील्ड एटलस को 2003 में बीमार कंपनी घोषित कर दिया गया था। लेकिन पैतृक कंपनी की कृपा से वह पटरी पर आ गई। दूसरे उसे फोर्ड, जनरल मोटर्स, डाना, जीई व कैटरपिलर जैसे बड़े ग्राहकों का संबल मिल गया। फिलहाल कंपनी भारत के सबसे प्रमुख गियर निर्माताओं में गिनी जाती है। वह मुख्तयः अपना माल ट्रैक्टर, ट्रक और कंस्ट्रक्शन उपकरण बनानेवाली कंपनियों को बेचती है। कंपनी के धंधे का 65 फीसदी हिस्सा निर्यात से आता है।
बीते वित्त वर्ष 2010-11 में 163.70 करोड़ रुपए की बिक्री पर 17.61 करोड़ रुपए का शुद्ध लाभ कमाया था और उसका शुद्ध लाभ मार्जिन (एनपीएम) 10.76 फीसदी था। चालू वित्त वर्ष 2011-12 के दौरान जून तिमाही में उसका शुद्ध लाभ 48.19 फीसदी और सितंबर तिमाही में 29.45 फीसदी बढ़ा है। इसके बाद दिसंबर तिमाही में जहां उसकी बिक्री 62.18 फीसदी बढ़कर 65.57 करोड़ रुपए पर पहुंच गई, वहीं शुद्ध लाभ 160.30 फीसदी बढ़कर 10.36 करोड़ रुपए हो गया। उसका एनपीएम इस बार 15.51 फीसदी रहा है।
जाहिर है अच्छे नतीजों की चमक का भी योगदान रहा है फेयरफील्ड एटलस के शेयरों के उछाल में। लेकिन डीलिस्टिंग की चर्चाओं ने इसे ज्यादा चढ़ाया है। पिछले एक महीने में ही यह करीब 24 फीसदी बढ़ चुका है। 1 फरवरी को यह 100.30 रुपए पर बंद हुआ था, जबकि कल 29 फरवरी को इसका बंद भाव 124.35 रुपए रहा। शेयर पिछले बारह महीनों के ईपीएस (प्रति शेयर लाभ) को देखते हुए 12.75 के पी/ई अनुपात पर ट्रेड हो रहा है, जबकि इसकी समकक्ष कंपनियों में हाई-टेक गियर्स का शेयर 6.23, जेड एफ स्टीयरिंग का 6.59 और सोना कोया स्टीयरिंग सिस्टम्स का शेयर 5.87 के पी/ई अनुपात पर ट्रेड हो रहा है।
हम तो यही कहेंगे कि डीलिस्टिंग की चर्चाओं के बीच उठे फेयरफील्ड एटलस के शेयर से फिलहाल दूर रहना चाहिए। वैसे भी डीलिस्टिंग के वास्ते अपने शेयरों को वापस खरीदने के लिए कंपनी को 41 करोड़ रुपए चाहिए, जबकि उसके खजाने में केवल 4 करोड़ रुपए हैं। इसलिए बहुत संभव है कि वो खुद को डीलिस्ट ही न कराए। बताते हैं कि कंपनी की विदेशी प्रवर्तक फर्म ने न्यूनतम 25 फीसदी पब्लिक हिस्सेदारी की शर्त को पूरा करने के लिए बीएसई से अनुरोध किया है कि उसे नीलामी के जरिए अपना करीब 10 फीसदी हिस्सा बेचने की इजाजत दी जाए।