मति मरी सीआईआई की, लोकतंत्र का खर्च टैक्स पर सेस से वसूलने को कहा

हमारे कॉरपोरेट जगत और उसकी तरफ से लामबंदी करने वाले उद्योग संगठनों को भारतीय लोकतंत्र की जमीनी हकीकत की कितनी समझ है, इसकी एक बानगी पेश की है जानेमाने संगठन, कनफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) ने। मंगलवार को सीआईआई के सालाना अधिवेशन को खुद वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने अपनी मौजूदगी से नवाजा था। उसी अधिवेशन में सीआईआई की एक टास्क फोर्स ने चुनाव सुधारों पर एक विस्तृत रिपोर्ट मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी को सौंपी, जिसमें सभी करदाताओं पर 0.2 फीसदी ‘डेमोक्रेसी सेस’ लगाने का सुझाव दिया गया है।

रिपोर्ट कहती है, “कंपनियों, व्यापारियों, व्यक्तियों, संस्थानों, संगठनों, ट्रस्टों व सोसायटियों समेत देश के सभी आयकर दाताओं को राजनीतिक गतिविधियों व चुनावों की फंडिंग के लिए अपने इनकम टैक्स पर 0.2 फीसदी का सेस (उपकर) देना चाहिए।” यह उपकर वे किसी भी मान्यताप्राप्त राजनीतिक पार्टी के खाते में जमा करा सकते हैं जिस पर उन्हें कर रियायत मिलनी चाहिए। 0.2 फीसदी से ऊपर बची रकम वे सीधे सरकार के चुनाव या राजनीतिक फंड में डाल सकते हैं जिसका उपयोग निर्वाचन आयोग उचित राजनीतिक गतिविधियों को सहयोग देने में कर सकता है।

सीआईआई के मुताबिक इससे देश में फैले राजनीतिक भ्रष्टाचार में कमी आएगी। पहली बात कि जब देश में कुल आयकर दाताओं की संख्या 1.60 करोड़ के आसपास है तो इनसे लोकतंत्र की कितनी उगाही हो सकती है। फिर, ये मध्यवर्ग के वो लोग हैं जो देश में छाई राजनीतिक संस्कृति से इतनी नफरत करते हैं कि किसी भी राजनीतिक पार्टी को शायद ही टैक्स पर टैक्स के बतौर कोई रकम देने को तैयार होंगे। इसके अलावा सेस की रकम से राजनीतिक पार्टियों को पता चल जाएगा कि कौन कितना अमीर है और वे इसके हिसाब से ‘बकरे’ पकड़ने में जुट जाएंगी।

फिर क्या लोकतंत्र में, जहां गुप्त मतदान का मानक चलता है, किसी की राजनीतिक पक्षधरता का यूं खुलासा करना उचित रहेगा? ऐसा होने पर हर व्यक्ति या कंपनी की राजनीतिक पसंद आयकर अधिकारियों के सामने खुली रहेगी और कोई भी सरकार इसका इस्तेमाल विरोधी लोगों को परेशान करने के लिए कर सकती है। जहां तक राजनीतिक चंदे की बात है तो इस समय भी मान्यताप्राप्त राजनीतिक पार्टी को चेक से किए गए भुगतान पर 100 फीसदी कर-रियायत मिलती है। यह प्रावधान कंपनियों से लेकर व्यक्तियों पर लागू है।

दूसरी बात। आम करदाता पहले से ही शिक्षा पर सेस, कोयले पर सेस, डीजल पर सेस और कच्चे तेल पर सेस जैसे तमाम ऐसे उपकर देता है कि उसके ऊपर किसी और सेस को लगाने का कोई तुक नहीं बनता। वह भी तब, जब वह देख चुका है कि इन तमाम उपकरों के बावजूद सड़कों से लेकर शिक्षा तंत्र की हालत बद की बदतर बनी हुई है।

तीसरी और अंतिम बात। इस समय सरकार जो टैक्स लेती है, क्या उसमें लोकतंत्र को चलाने का खर्च शामिल नहीं है? क्या आम करदाताओं की रकम राजनीतिक तंत्र की मनमानी को चलाने के लिए है? क्या इसमें उनकी जवाबदेही को तय करने का खर्च शामिल नहीं है? क्या हमारे चुने हुए प्रतिनिधि लोक से लिए गए धन से लोक को प्रभुतासंपन्न बनाने में शर्म महसूस करते हैं या इतना टैक्स उनकी लूट के लिए पूरा नहीं पड़ रहा है? असल में सीआईआई ने जिस राजनीतिक भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए ‘लोकतंत्र उपकर’ लगाने का सुझाव दिया है, उससे यह खत्म होने के बजाय और बढ़ जाएगा। यह संगठन जिस लॉबीइंग में लगा है, वह वही काम करे तो बेहतर है। इस तरह ‘उपकर’ लगवाकर वह लोकतंत्र का ‘उपकार’ न ही करे तो अच्छा होगा।

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