आज दुनिया कितनी ग्लोबल हो गई है, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि अमेरिका में ऋण सीमा पर लटकी तलवार से उससे ज्यादा परेशानी चीन और जापान को हो रही है। इन देशों के मंत्रीगण अमेरिका को पटाने में लगे हैं कि किसी भी सूरत में ऐसी नौबत न आने दी जाए क्योंकि ऐसा हो गया तो उन्होंने अमेरिका को जो भारी भरकम कर्ज दे रखा है, उसे वापस पाना मुश्किल हो जाएगा। सोचिए, ऐसा तब हो रहा है कि जब डॉलर दुनिया की मुद्रा है और अमेरिका को स्टैंडर्ड एंड पुअर्स, मूडीज़ और फिच जैसी एजेंसियों ने सर्वोच्च रेटिंग दे रखी है।
फिलहाल अमेरिका में बजट प्रस्तावों पर सत्ताधारी डेमोक्रेट्स और विपक्षी रिपब्लिकंस की तनातनी से उपजे शटडाउन का असर मद्धिम पड़ने लगा है। वहां के तमाम राष्ट्रीय पार्क और म्यूजियम अब भी बंद पड़े हैं। लेकिन हफ्ते भर से बिना वेतन घर बैठे करीब आठ लाख सरकारी कर्मचारियों में से साढ़े तीन लाख कर्मचारियों को वापस बुला लिया गया है। मगर, सबसे बड़ा संकट है अगले हफ्ते 17 अक्टूबर को खत्म हो रही 16.7 लाख करोड़ डॉलर की ऋण सीमा। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इसे तब तक बढ़ाया न जा सका तो दुनिया में 2008 या उससे भी बदतर वित्तीय संकट पैदा हो सकता है।
ऋण सीमा न बढ़ने से अमेरिका पुराने ऋणों को चुकाने में डिफॉल्ट कर सकता है जिसकी सबसे तगड़ी मार चीन पर पड़ेगी क्योंकि आज की तारीख में अमेरिका को सबसे ज्यादा कर्ज उसी ने दे रखा है। इसलिए अमेरिका में छाए संकट से चीन के पसीने छूट रहे हैं। कल, सोमवार को चीन के उप-वित्त मंत्री झू गुआंगयाओ ने अमेरिका से दरियाफ्त की है कि उनके निवेश को बचाया जाए।
बता दें कि अमेरिकी सरकार के लांग टर्म बांडों, ट्रेजरी बांड, यूएस एजेंसी बांड और कॉरपोरेट बांडों में जून 2013 तक कुल विदेशी निवेश 22.25 लाख करोड़ डॉलर का है जिसमें से अकेले चीन का निवेश 3.20 लाख करोड़ रुपए यानी 14.38 फीसदी का है। अमेरिका के ऋणदाताओं में इसके बाद जापान का नंबर है जिसने इन बांडों में 3.10 लाख करोड़ डॉलर यानी 13.92 फीसदी लगा रखे हैं। इन दोनों देशों से इस तरह अमेरिका के तमाम ऋणों का करीब 28.30 फीसदी बोझ उठा रखा है।
अमेरिका में ऋण सीमा न बढ़ने से सबसे ज्यादा संकट ट्रेजरी बांडों की ब्याज व मूलधन अदायगी में आएगा। अमेरिकी वित्त मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक जुलाई 2013 के अंत तक उनके ट्रेजरी बांडों में लगा कुल धन 5.59 लाख करोड़ डॉलर है। इसमें सबसे ज्यादा 1.28 लाख करोड़ डॉलर (22.85 फीसदी) चीन ने और उसके बाद 1.13 लाख करोड़ डॉलर (20.31 फीसदी) जापान ने लगा रखे हैं। किसी भी डिफॉल्ट की स्थिति में इन दोनों पर ही सबसे ज्यादा मार पड़ेगी। इसलिए चीन के साथ-साथ जापान ने भी अमेरिका से गुहार लगाई है कि उसके निवेश को बचाया जाए।
जापान के वित्त मंत्री तारो असो ने मंगलवार को कहा कि हमें यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि अमेरिका में जारी राजनीतिक गतिरोध का उसके बांडों के मूल्यों पर क्या असर पड़ेगा। जापान की दूसरी चिंता यह भी कि अमेरिका के संकट से डॉलर के मुकाबले उनकी मुद्रा येन का मूल्य बढ़ सकता है। इससे जापान के निर्यात पर खराब असर पड़ेगा। चीन की मुद्रा युआन अभी बाज़ार से सीधे जुड़ी नहीं है। इसलिए वो निर्यात के धंधे को बढ़ाने के लिए अपनी मुद्रा को ज्यादा चढ़ने नहीं देता।
जानकारों का कहना है कि भारत इस बात पर खुश नहीं हो सकता कि अमेरिकी ट्रेडरी बांडों में उसका निवेश मात्र 59.1 अरब डॉलर (लांग टर्म बांडों वगैरह में कुल निवेश 114.84 अरब डॉलर) है क्योंकि दुनिया में वित्तीय संकट आया तो उसका तगड़ा असर हमारे बाज़ारों पर भी पडेगा। हालांकि लगता नहीं कि ऐसी कोई नौबत आएगी। दो साल पहले अगस्त 2011 में भी ऋण सीमा बढ़ाने पर डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकंस में ऐसी ही तनातनी पैदा हो गई थी। लेकिन आखिरी वक्त पर उसे सुलझा लिया गया।