निर्यात बढ़ेगा। अर्थव्यवस्था बढ़ रही है। आगे और भी तेज़ी से बढ़ेगी। महंगाई घटेगी। बेरोज़गारी है नही। है भी तो आगे कम हो जाएगी। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से लेकर सरकार के तमाम मंत्री ऐसे दावे और आंकड़े संसद से सड़क तक फेंकते रहते हैं। सच क्या है? कृषि क्षेत्र अर्थव्यवस्था को संभाले हुए हैं। लेकिन कॉरपोरेट क्षेत्र तमाम प्रोत्साहनों के बावजूद पूंजी निवेश नहीं कर रहा। वित्त वर्ष 2013-14 में कुल टैक्स संग्रह में कॉरपोरेट टैक्स का हिस्सा 34% हुआ करता था। सरकारी रियायतों के बाद चालू वित्त वर्ष 2022-23 में यह घटकर 26% पर आ गया है। इस तरह निजी कॉरपोरेट क्षेत्र के करीब 2.50 लाख करोड़ रुपए बच गए। फिर भी वह पूंजी निवेश नहीं कर रहा। कारण, मांग नहीं, ब्याज दर ज्यादा, दुनिया में आर्थिक सुस्ती तो वह उत्पादन क्षमता क्यों बढ़ाए?
दरअसल, अपना भारत इस वक्त आर्थिक मोर्चे पर ऐसी ही चुनौतियों से रूबरू है। देश की घरेलू बचत लगातार घट रही है। रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक हमारी सकल घरेलू बचत वित्त वर्ष 2018-19 में 60,00,390 करोड़ रुपए हुआ करती थी। यह 2019-20 में 59,95,942 करोड़ रुपए और 2020-21 में 55,92,446 करोड़ रुपए रह गई। बाद का सरकारी आंकड़ा अभी तक नहीं आया है। लेकिन मोतीलाल ओसवाल फाइनेंशियल सर्विसेज की एक रिपोर्ट के मुताबिक चालू वित्त वर्ष 2022-23 में सितंबर 2022 तक की छमाही में हमारी सकल घरेलू बचत दर जीडीपी की 26.2% रह गई है जो पिछले 19 सालों का न्यूनतम स्तर है। बचत दर घटने से उद्योगों में निवेश पर नकारात्मक असर पड़ता है। साथ ही इसकी भरपाई विदेशी बचत से करनी पड़ती है जिससे देश के चालू खाते का घाटा बढ़ जाता है। सितंबर 2022 की तिमाही में यह घाटा जीडीपी के 4.4% के खतरनाक निशान पर है, जबकि साल भर पहले 1.3% था।
सरकार को आज यह स्वीकार करना ह पड़ेगा कि भारत के सामने अब मुद्रास्फीति को थामना नहीं, बल्कि आर्थिक विकास दर को बढ़ाना बड़ी चुनौती है। रिटेल मुद्रास्फीति की दर नवंबर में 5.88% थी। यह दिसंबर में और घटकर 5.72% हो गई है। यह काफी सुखद संकेत है। लेकिन दुखद बात यह है कि देश में औद्योगिक निवेश नहीं बढ रहा। वह भी तब, जब मोदी सरकार जब देश के भौतिक और डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर को लगातार बेहतर बनाने के साथ ही उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन (पीएलआई) दे रही हो। होना यह चाहिए था कि चीन से दुनिया के मोहभंग और वहां की आर्थिक संभावनाओं के क्षीण होते जाने से भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेशी पूंजी निवेश की बाढ़ आ जानी चाहिए थी। लेकिन ज़मीनी स्तर पर फिलहाल ऐसा कुछ नहीं होता दिख रहा। घरेलू पूंजी निवेश भी ठंडा पड़ा है, वह भी तब, जब क़ॉरपोरेट क्षेत्र और बैंकों की बैलेस शीट की पुरानी समस्या अंततः हल हो चुकी है।
गौरतलब है कि इधर कॉरपोरेट क्षेत्र पर ऋण का बोझ खूब घटा है। साथ ही बैंकों के एनपीए कम हो गए हैं क्योंकि उन्होंने पिछले छह सालों में 11.17 लाख करोड़ रुपए के ऋण बट्टेखाते में डाल दिए। मगर, दिक्कत यह कि इन्हीं छह सालों में पहले आर्थिक सुस्ती और फिर कोरोना की मार से किसानों से लेकर आम उपभोक्ता तक ज्यादा कर्जदार हो गया है। यकीनन, बड़े कॉरपोरेट घरानों और उनके आला कर्मचारियों के साथ ही सरकारी कर्मचारियों की आमदनी बढ़ी है। लेकिन लाखों आम मजदूरों से लेकर मध्यवर्ग के लोगों की नौकरियां गई हैं, उन पर कर्ज का बोझ बढ़ा है और ऊपर से बढ़ती ब्याज दरों से उनकी ईएमआई से लेकर अन्य देनदारियां तक बढ़ गई हैं। वहीं, दस लाख से ऊपर की कारों की मांग बढ़ी और पांच लाख तक की मांग घटी है।
हमें यह भी समझने की जरूरत है कि विषम और विकट स्थितियों में अर्थव्यवस्था के सामान्य नियम काम नहीं करते। मसलन, किसी देश का मुद्रा अगर अगर डॉलर व यूरो के मुकाबले कमज़ोर होती है तो माना जाता है कि उस देश का निर्यात बढ़ जाएगा क्योंकि उसका माल इन देशों में डॉलर में सस्ता हो जाएगा। इधर कुछ महीनों भारतीय रुपया डॉलर और यूरो दोनों के ही खिलाफ काफी कमज़ोर हुआ है। डॉलर पहले 75 रुपए का हुआ करता था, अब 82 रुपए का मिल रहा है। वहीं, सितंबर में यूरो 80 रुपए का था, जबकि अब 88 रुपए का हो गया है। लेकिन इसी दौरान भारत का निर्यात तेज़ी से घटा है। कारण, यूरोप व अमेरिका से मांग ही नहीं आ रही और जो मांग आ भी रही है, उसे वियतनाम व बांग्लादेश जैसे देश हम से सस्ते में पूरा कर दे रहे हैं। भारत की चुनौती आसान नहीं।
(आज कुछ अपरिहार्य समस्याओं के चलते ट्रेडिंग बुद्ध का नियमित कॉलम सुबह छप नहीं पाया। उसकी क्षतिपूर्ति के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान चुनौतियों में इस कॉलम की बातों का संकलित स्वरूप हम पेश कर रहे हैं ताकि नए वित्त वर्ष 2023-23 के आम बजट की पृष्ठभूमि की बुनियादी समझ बन सके। ट्रेडिंग बुद्ध के सब्सक्राइबरों को एक दिन का अतिरिक्त सब्सक्रिप्शन दिया जाएगा। आपको हुई परेशानी के लिए हमें खेद है)