बैंकों के लिए अपनी जमा का इतना बड़ा हिस्सा सरकारी बांडों में लगाना क्यों जरूरी है? यह मुद्दा उछाल दिया है खुद रिजर्व बैंक के गवर्नर दुव्वरि सुब्बाराव ने। उन्होंने मंगलवार को मुंबई में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेन ट्रेड के एक समारोह में कहा कि बैंकों द्वारा सरकारी बांडों में निवेश करने के लिए तय न्यूनतम जमा का अनिवार्य अनुपात धीरे-धीरे कम किया जाना चाहिए। जानकारों को लगता है कि ऐसा हो गया तो बाजार में सरकारी बांडों की सप्लाई बढ़ जाएगी।
बता दें कि रिजर्व बैंक ने तय कर रखा है कि बैंकों को अपनी जमा का एक हिस्सा वैधानिक तरलता अनुपात (एसएलआर) के बतौर सरकारी बांडों, नकद या सोने में लगाकर रखना चाहिए। साथ ही बैंकों को अपनी जमा का निश्चित भाग रिजर्व बैंक के पास नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर) के तहत रखना पड़ता है।
रिजर्व बैंक गवर्नर सुब्बाराव ने सोमवार को उक्त समारोह में कहा, “अभी एसएलआर 24 फीसदी और सीआरआर 6 फीसदी है। किसी समय ये दोनों (सीआरआर व एलएलआर) मिलकर 65 फीसदी हुआ करते थे। फिलहाल 30 फीसदी हैं। लेकिन यह भी ज्यादा लग रहा है। रिजर्व बैंक में हमारा लक्ष्य है कि इसे व्यवस्थित तरीके से नीचे लाया जाए।”
सुब्बाराव के इस बयान के बाद बाजार में सरकारी बांड़ों के दाम घट गए और नतीजतन यील्ड बढ़ गई क्योंकि लगा कि इससे बाद बैंक अपने पास रखे सरकारी बांड बेच सकते हैं। एक विदेशी बैंक के डीलर ने कहा कि रिजर्व बैंक अभी तुरत-फुरत कुछ नहीं करने जा रहा। लेकिन कारोबारियों को लगता है कि वह सिस्टम में तरलता बढ़ाने के लिए एसएलआर में कमी कर सकता है।
अभी नियमतः बैंकों को अपनी कुल जमा का 24 फीसदी ही एसएलआर बांडों में लगाना पड़ता है। लेकिन बैंकों का वास्तविक एसएलआर निवेश 29 फीसदी के आसपास है। असल में बैंक तरलता प्रबंधन के लिए सरकारी बांडों में निवेश ज्यादा रखते हैं क्योंकि उन्हें रेपो सुविधा के तहत रिजर्व बैंक से अल्पकालिक उधार लेने के लिए इन बांडों को बंधक रखना पड़ता है।