दस साल पहले देश में आशाओं और आकांक्षाओं के उबाल का दौर था। इसी उबाल को अन्ना आंदोलन ने हवा दी थी और इसी पर सवार होकर 2014 में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सीधे देश के प्रधानमंत्री बन गए थे। देश के बहुमत को यकीन था कि हम विकास के नए दौर में छलांग लगाने जा रहे हैं। हर साल दो करोड़ नए रोज़गार। हर देशवासी के बैंक खाते में स्विस बैंकों में जमा भारतीयों के कालेधन की जब्ती से 15-15 लाख रुपए। लेकिन धीरे-धीरे सब जुमला साबित होता गया। आशा निराशा में बदल गई। अपना दुनिया-जहान बेहतर बनाने की चाह में बाहर निकले लोग जहां के तहां जम गए। भारतीय रेल के आंकड़े साक्षी है कि जहां वित्त वर्ष 2018-19 में 843.90 करोड़ यात्रियो ने सफर किया, वहीं यह संख्या कोरोना के साल वित्त वर्ष 2020-21 में घटकर 125 करोड़, 2021-22 में बढ़कर 351.90 करोड़, 2022-23 में 939.60 करोड़ और 2023-24 में 673 करोड़ रही है जो 15 साल पहले 2008-09 के 692 करोड़ से भी कम है। आखिर यह कैसा विकास है कि लोग चलने के बजाय ठहर गए हैं? यह कैसा अजगर है जिसने आकांक्षी भारत को जकड़ लिया है? अब मंगलवार की दृष्टि…
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