भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) को अंग्रेजी में हमारे पूंजी बाजार का वॉच डॉग कहा जाता है और वाकई लगता है कि वह बड़ों पर भौंकने और छोटों को काटने का काम करता है। सेबी ने 7 जून को रिलायंस नेचुरल रिसोर्सेज (आरएनआरएल) और रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर में ‘डीलिंग’ के मामले में इन कंपनियों के अलावा अनिल अंबानी और समूह के चार अन्य बड़े अधिकारियों को कारण बताओ नोटिस जारी किया था। 9 जून को यह नोटिस इन सभी के पास पहुंच गया। इन्हें 21 दिन के भीतर यानी 30 जून तक इसका जवाब देना था। किसी ने नहीं दिया।
सेबी ने इसके बाद 21 जुलाई को एक पत्र भेजकर इन्हें व्यक्तिगत रूप से मिलने को कहा। लेकिन सोमवार, 2 अगस्त को हुई व्यक्तिगत सुनवाई में आरएनआरएल और रिलायंस इंफ्रा के वकील दीपक संचेती और इनके कंपनी सचिव आशीष कार्येकर व रमेश शेनॉय को भेजकर खानापूरी कर दी गई। बाकी पांच लोग – अनिल अंबानी (दोनों कंपनियों के चेयरमैन), सतीश सेठ (कार्यकारी चेयरमैन, रिलायंस इंफ्रा), एससी गुप्ता (निदेशक, रिलायंय इंफ्रा), जेपी चलसानी (निदेशक, रिलायंस इंफ्रा) और ललित जालान (पूर्णकालिक निदेशक, रिलायंस इंफ्रा) इस सुनवाई में न तो खुद पहुंचे और न ही अपना कोई प्रतिनिधि भेजा।
खैर, सेबी ने सुनवाई की खानापूरी कर दी और तय किया है कि 17 अगस्त को ये लोग कारण बताओ नोटिस से जुड़े दस्तावेज आकर जांच सकते हैं, 27 अगस्त तक इन्हें नोटिस का जवाब देना है और 3 सितंबर को सुबह 10 बजे व्यक्तिगत सुनवाई के लिए उपस्थित श्रीमान हो जाना है। लेकिन सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि पारदर्शिता की पैरोकार सेबी ने सोमवार को जारी सूचना में जरा-सा भी नहीं बताया कि अनिल अंबानी और उनकी कंपनियों के आला अधिकारियों को यह नोटिस किस सिलसिले में जारी किया गया था। न ही 7 जून को जारी नोटिस को सेबी ने सार्वजनिक किया है। सेबी का यह दोहरा मापदंड किसी को भी खटक सकता है क्योंकि सामान्य मामलों में वह 20-40 पन्नों में सारा राज खोलकर सामने रख देता है और नोटिस का जवाब न देने पर एक करोड़ तक का जुर्माना लगा देता है।
सेबी आम निवेशकों को जानकार बनाने की कसम खाता है, लेकिन उसकी सूचना अनिल अंबानी व उनकी कंपनियों की करतूतों पर चुप्पी साधकर सारा कुछ छिपा जाती है। वैसे, यह मामला संसद में भी उठ चुका है। 1 दिसंबर 2009 को वित्त राज्य मंत्री नमो नारायण मीणा ने राज्यसभा में एक लिखित उत्तर में बताया था कि रिलायंस इंफ्रा ने दो विदेशी वाणिज्यिक उधार (ईसीबी) से 36 करोड़ डॉलर और 15 करोड़ डॉलर जुटाए थे। लेकिन इनका इस्तेमाल निर्धारित काम में नहीं किया। साथ ही आरएनआरएल ने विदेशी मुद्रा परिवर्तनीय बांडों (एफसीसीबी) से 30 करोड़ डॉलर जुटाए थे। उसने भी इसका घोषित इस्तेमाल नहीं किया। रिजर्व बैंक ने मुद्दा उठाया तो इसकी जांच प्रवर्तन निदेशालय को दे दी गई।
असल में सारा मामला जबरदस्त ‘डीलिंग’ और अपने ही पैसे से अपनी कंपनियों के शेयरों में खेल करने का है। इसका भेद पिछले साल प्लूरी एमर्जिंग कंपनीज नाम के एक गुमनाम एफआईआई (विदेशी संस्थागत निवेशक) के सौदों की जांच के बाद खुला। प्लूरी ने अपने विदेशी ग्राहकों के लिए आरएनआरएल और रिलायंस इंफ्रा से जुड़े पार्टिसिपेटरी नोट (पीएन) खरीदे थे। उसने ये पीएन हाइथे सिक्यूरिटीज से खरीदे थे, जिसने इन्हें बारक्लेज बैंक से खरीदा था। बाद में पता चला कि प्लूरी ने यूबीएस बैंक की लंदन शाखा में अनिल अंबानी की इन दोनों कंपनियों के खातों से रकम निकालतर ये पीएन खरीदे थे। यह वो पैसा था जो इन कंपनियों या ईसीबी या एफसीसीबी से जुटाए थे। सारे मामले में बारक्लेज बैंक के अलावा फ्रांस का एक वित्तीय समूह सोकजेन भी शामिल है।
कहाँ ले जायेगा इतना पैसा? खरबों का मालिक है लेकिन नीयत दो कौड़ी की, और इसकी कम्पनियों की सर्विस भी बकवास और बेहूदा…