भोर होने को है। घर की छोटी-बड़ी औरतें हर कोने-अंतरे में जाकर सूप पीटकर एकस्वर में कहती हैं – ईशर आवएं, दलिद्दर जाएं। पता नहीं कि उनका ईशर कोई ईश्वर है या ऐश्वर्य। लेकिन दलिद्दर में दुख देनेवाली हर चीज़ का समावेश है। चाहे वो बीमारी हो, निर्धनता हो या कोई झगड़ा-फसाद व क्लेश हो। वे शोर नहीं करतीं। पूरी शांति से इस दारिद्रय को भगाने का अभियान चलातीं, पुरुष और बच्चों की भोर की नींद में कोई खलल डाले बगैर। फिर कहीं गांव के बाहर दूर जाकर दारिद्रय के प्रतीक सूपों को जला देतीं।
पता नहीं कि उत्तर भारत के गांवों में दीपावली के दिन के आगाज़ की यह प्रथा कितनी सलामत है। लेकिन इतना तो साफ है कि अब शांति से कुछ नहीं होता। सब कुछ हल्ला मचाकर किया जाता है। दुष्यंत कुमार की पंक्तियां याद आती हैं कि कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं, गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं। जिस ग्रामीण भारत में हमारी आधी से ज्यादा आबादी बसती है, वहां सन्नाटा पसरा है। वहीं, नगरों-महानगरों और कस्बों-शहरों में पटाखों का शोर है, रोशनी की चकाचौंध है, सेल और महासेल है। हर गली-मोहल्ले में भरपूर रेलमपेल है। दुकानों की लड़ियां हैं ऑनलाइन भी और ऑफलाइन भी।
सरकार भी प्रफुल्लित है। वो मारा, ये मारा। सीमापार कितनों को मार गिराया। कहते हैं कि काशीवालों ने तो 29 सितंबर की सर्जिकल स्ट्राइक के दिन ही छोटी दिवाली मना ली थी। लेकिन किसी के मरने-मारने से दिवाली का वास्ता नहीं है। न कभी रहा है। किसानों में समाया भारतीय लोक इसे रबी की फसलों के लिए खेतों को कीट-पतंगों से मुक्त होने के लिए मनाता रहा है तो व्यापारी समुदाय में समाया अभिजन इसे बहीखाते की पूजा से लेकर गणेश-लक्ष्मी की वंदना के रूप में मनाता रहा है।
मरना-मारना तो दलिद्दर है। उधर भी कोई मां अपने लाल के जाने पर तड़पती है। इधर भी कभी कोई बच्ची तो कभी कोई बाप गृहमंत्री का कुर्ता पकड़कर पूछ बैठता है कि हमारे ही लोग हमेशा क्यों शहीद होते हैं। बहन को आस लगी थी कि सेना में नौकरी करने गए भैया अबकी बार लौटेंगे तो उसकी शादी के सारे साजोसिंगार का इंतज़ाम करके लौटेंगे। लेकिन अबकी बार लौटा कौन? मीलों के दरमियानी फासले आकाशगंगा तक लंबे हो गए। भारतीय अवाम में फैले इस दुख को आखिर कौन समझेगा। कहते हैं – जैसे सूफ़ी का तसव्वुर, जैसे आशिक़ का ख़याल, आह! लेकिन कौन समझे, कौन जाने जी का हाल।
मंत्री जी कहते हैं कि दुनिया में सबसे तेज़ रफ्तार से बढ़ रही हमारी अर्थव्यवस्था इस बार 8 प्रतिशत की दर से बढ़ेगी। विश्व बैंक भी तस्दीक करता है कि भारत का जीडीपी 7.6 प्रतिशत बढ़ जाएगा। लेकिन ज़मीन पर कुछ बढ़ता नहीं दिखता। उद्योग-धंधों तक में सन्नाटा है। नया निवेश ठंडा है तो बैंकों से ऋण लेने की जरूरत नहीं रह गई। रिजर्व बैंक के आंकड़े कहते हैं कि औद्योगिक क्षेत्र को दिए गए जो बैंक ऋण चार साल पहले तक 20 प्रतिशत से ऊपर और जुलाई 2014 तक दहाई अंकों में बढ़ रहे थे, उनकी दर अगस्त 2016 में ऋणात्मक हो गई है। पिछले दस सालों में पहली बार ऐसा हुआ है।
बिजनेस करने की आसानी में हम पिछले साल दुनिया में 131 नंबर पर थे। अब 130 नंबर पर हैं। लेकिन सरकारी नौकरियां सिकुड़ती जा रही हैं। बिजनेस करना आसान नहीं हो रहा तो रोज़गार के अवसर भी नहीं बन रहे। इस बीच हर महीने कम से कम दस लाख और साल भर में सवा करोड़ नए नौजवान रोजगार की लाइन में लग जाते हैं। नौकरी-चाकरी और धंधा नहीं तो लक्ष्मी कहां से आएंगी। दिक्कत है कि गणेश भगवान भी विघ्न-बाधाओं को दूर नहीं कर रहे।
समाधान कहां है? समस्या पुरानी है तो समाधान के सूत्र भी पीछे जाकर तलाशने होंगे। हमारी नीतियों में कहां खोट रह गई? क्यों ऐसा हुआ कि समृद्धि तो आई, लेकिन दलिद्दर नहीं गया। टाटा समूह जैसे बड़े कॉरपोरेट समूह में अगर चेयरमैन को चार साल में निकालने की नौबत आ रही है तो इससे वहां का दलिद्दर ही झलकता है। कबीर कहा करते थे – साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम समाए, मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाए। लक्ष्मी एक संतुलन का प्रतीक हैं, कर्मठता का प्रतीक हैं। वे अपने साथ वैभव व यश के साथ-साथ शांति भी लाती हैं। वे पटाखों के शोर या रौशनी की चकाचौंध से नहीं, समस्याओं को सुलझाने से आती हैं। इन्हें सुलझाते जाइए, उनके आने का रास्ता अपने-आप खुलता चला जाएगा।
{यह लेख 30 अक्टूबर 2016 को दीपावली के दिन दैनिक जागरण के ‘मुद्दा’ पेज़ पर छपा है}