बजट न गांव-गरीब का, न नौजवान या किसान का, यह होता है सरकार का!

अगर आपको लगता है कि बजट आपके लिए है, गांव व गरीब के लिए है, नौजवान, महिलाओं, किसानों और बुजुर्गों के लिए है, नौकरी कर रहे या छोटी-मोटी कमाई करनेवाले मध्यवर्ग के लिए है तो आप गफलत में हैं। अगर आपको कहीं से यह लगता है कि बजट समाज कल्याण, शिक्षा व स्वास्थ्य के लिए है, तब भी आप गफलत में हैं। यह बजट केवल और केवल सरकार के लिए है। इसमें अगर दरअसल किसी का कल्याण करने की मंशा है तो वो है देशी-विदेशी कॉरपोरेट क्षेत्र। हम और आप तो बस टैक्स वसूलने का ज़रिया भर हैं। हम यह बात अपने मन या कहीं हवा से नहीं कह रहे। बल्कि, इसे साबित करता है खुद वो अंतरिम बजट जो हमारी वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस साल 1 फरवरी को पेश किया था। 23 जुलाई को पेश होनेवाले पूरे बजट में भी थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ कमोबेश वही सब कुछ रहनेवाला है।

इस साल 2024-25 का पूरा बजट 47 लाख 65 हज़ार सात सौ अड़सठ (47,65,768) करोड़ रुपए का है। मतलब, सरकार को कुल इतनी रकम मिलनी है और इतनी ही रकम उसे खर्च करनी है। ध्यान दें कि यह केंद्र सरकार का बजट है। राज्यों का बजट एकदम अलग होता है। लेकिन केंद्र सरकार राज्यों की तरफ से भी टैक्स वसूल कर रखती है। जैसे, इस बार टैक्स से कुल 38,30,796 करोड़ रुपए वसूले जाने हैं जिसमें से 12,19,783 करोड़ रुपए राज्यों के हिस्से के हैं।

आप यह जानकर चौंक जाएंगे, जिस कॉरपोरेट क्षेत्र को इस बजट से सबसे ज्यादा लाभ मिलनेवाला है, वो सबसे कम कम टैक्स दे रहा है। कुल इकट्ठा किए जा रहे टैक्स में से कॉरपोरेट टैक्स 10,42,830 करोड़ रुपए हैं, जबकि इनकम टैक्स से सरकार को मिल रहे हैं इससे 1,13,170 करोड़ रुपए ज्यादा 11,56,000 करोड़ रुपए। यह तो सीधे लिया जानेवाला टैक्स है। इस बार जीएसटी जैसा घुमाकर लिया जानेवाला टैक्स 10,67,650 करोड़ रुपए है जो कॉरपोरेट टैक्स से 24,820 करोड़ रुपए अधिक है। ऊपर से केंद्र सरकार कस्टम व एक्साइज़ ड्यूटी से 5,54,790 करोड़ रुपए वसूल रही है जो अंततः आम आदमी की जेब से जाता है, वहीं अमीरों से लिया जानेवाला वेल्थ टैक्स पिछले दो साल से निल चल रहा है और इस बार भी निल बटे सन्नाटा ही है। मजे की बात है कि सोने पर कस्टम ड्यूटी से कुछ नहीं मिलना है, जबकि भारत दुनिया का पांचवा सबसे बड़ा सोना आयातक देश है।

सरकार जनता से इतना सारा टैक्स वसूलने के बाद खर्च कहां करती है, उसका भी हिसाब कर लेते हैं। लेकिन उससे पहले बता दें कि सरकार को देश के सभी गरीब-अमीर अवाम के टैक्स से पूरा नहीं पड़ता तो वो वसूली के दूसरे तरीके भी अपनाती है। वह राज्यों व यूनियन टेरिटरीज़ को ऋण देती है जिससे उसे इस बार 33,107 करोड़ रुपए का ब्याज मिलना है। इससे भी कहीं बड़ा मद है सरकारी कंपनियों व बैंकों से मिलनेवाला डिविडेंड या लाभांश। इस बार उसने सरकारी कंपनियों से 48,000 करोड़ रुपए और बैंकों व रिजर्व बैंक से 1,02,000 करोड़ रुपए मिलने का लक्ष्य था। लेकिन उसे अकेले रिजर्व बैंक ने पिछले साल से 2.4 गुना ज्यादा 2,10,874 करोड़ रुपए का लाभांश दे दिया है, जबकि उसकी आमदनी 17.4% ही बढ़ी है। इसे केंद्र सरकार की वसूली नहीं तो और क्या कहा जाएगा?

इसके बाद भी सरकार का खजाना या कहें तो पेट नहीं भरता तो वह देश के नाम पर हर साल उधार लेती है। इस उधार का सम्मानजनक नाम है राजकोषीय घाटा या फिस्कल डेफिसिट। दुनिया भर के अर्थशास्त्री फिस्कल डेफिसिट को किसी देश के लिए एक कलंक मानते हैं और चाहते हैं कि कलंक के इस टीके को छोटे से छोटा कर दिया जाए। इस बार वसूली का हर तकीका अपनाने के बाद फिस्कल डेफिसिट या उधार से 16,85,494 करोड़ रुपए जुटाने जा रही है। यह इस साल हमारे अनुमानित जीडीपी का 5.1% ठहरता है जिसे वह चाहे तो रिजर्व बैंक से मिले 2.11 लाख करोड़ रुपए के छप्पर फाड़ डिविडेंड से कम कर सकती है। लेकिन ऋणम् कृत्वा घृतम् पीवेत की सोच वाली सरकार से हम यह उम्मीद शायद नहीं कर सकते। हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्योंकि 16,85,494 करोड़ रुपए के फिस्कल डेफिसिट या उधार में से 70% से ज्यादा रकम या 11,90,440 करोड़ रुपए पुराने ऋणों का ब्याज चुकाने के लिए हैं।

अब आते हैं आज की आखिरी बात पर कि सरकार अवाम के टैक्स और उधारी से मिली भारी-भरकम रकम कहां-कहां खर्च करती है? जैसा कि हमने शुरू में बताया कि सरकार को इस बार कुल मिलने हैं 47 लाख 65 हज़ार सात सौ अड़सठ (47,65,768) करोड़ रुपए। इसमें से पुराने ऋणों के ब्याज चुकाने या कहें तो पुराने पाप काटने पर चले गए 11,90,440 करोड़ रुपए तो बच गए 35,75,328 करोड़ रुपए। फिर केंद्र सरकार के अपने रखरखाव पर खर्च होने हैं 7 लाख 68 हजार 221 (7,68,221) करोड़ रुपए। कमाल की बात है कि यह खर्च मोदी सरकार द्वारा मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिम गवर्नेंस का नारा देने के बाद पिछले पांच साल में घटने के बजाय 34.74% बढ़ गया। खैर, सरकार का यह अपने ऊपर किया जानेवाला खर्च घटा दें बजट में से बचते हैं 28,07,107 करोड़ रुपए।

इसके बाद सरकार डिफेंस से ज्यादा खर्च करती है ट्रांसपोर्ट या परिवहन पर। परिवहन पर उसका अनुमानित खर्च इस बार 5,44,039 करोड़ रुपए है। यह दो साल पहले इसी मद में खर्च हुए 3,90,504 करोड़ रुपए से पूरे 39.32% अधिक है। वहीं, इस बार डिफेंस का अनुमानित खर्च 4,54,773 करोड़ रुपए है, जो दो साल पहले इस मद में हुए खर्च 3,99,123 करोड़ रुपए से 13.94% ही ज्यादा है। आखिर ट्रांसपोर्ट पर इतनी कृपा क्यों? आप कहेंगे कि इसमें रेलवे का खर्च भी शामिल हो सकता है। लेकिन बजट दस्तावेज़ में कहीं भी इसे साफ नहीं किया गया है।

ब्याज अदायगी, सरकारी रखरखाव, ट्रांसपोर्ट और डिफेंस के चार मदों का खर्च निकाल दें तो अब बचते हैं 18,08,295 करोड़ रुपए यानी कुल बजट का करीब 38% (37.94%) हिस्सा। सौ में 40 रुपए से भी कम। इसमें से सांसदों व सरकारी कर्मचारियों वगैरह को दी जानेवाली 2,39,612 करोड़ रुपए की पेंशन, किसानों के नाम पर खाद कंपनियों को दी जानेवाली 1,64,000 करोड़ रुपए की सब्सिडी और 81.35 करोड़ गरीबों को मुफ्त राशन के नाम पर दी जानेवाली कुल 2,55,000 करोड़ रुपए की फूड सब्सिडी को घटा दे तो काम का बजट बच जाता है कि 11,49,683 करोड़ रुपए।

यही वह रकम है जिससे देश के अवाम का विकास किया जाना है। इसमें से सबसे ज्यादा 2,65,808 करोड़ रुपए ग्रामीण विकास और 1,46,819 करोड़ रुपए कृषि व उससे जुड़े कामों पर जाने हैं। गांव-गिरांव से जुड़े लोग अच्छी तरह जानते हैं कि कृषि व ग्रामीण विकास का सारा खर्च अंधा पीसे, कुत्ता खाय वाली स्थिति में हैं। इसके बाद बचे केंद्र के बजट में से 1,39,328 करोड़ रुपए गृह मंत्रालय झटक लेता है।

इसके बाद 144 करोड़ आबादी वाले देश में शिक्षा के लिए कुल 1,24,638 करोड़, स्वास्थ्य के लिए 90,171 करोड़, समाज कल्याण के लिए 56,501 करोड़ और विज्ञान के लिए 32,169 करोड़ रुपए ही बचते हैं। यानी प्रति व्यक्ति शिक्षा के लिए साल भर के 866 रुपए, स्वास्थ के लिए 626 रुपए, समाज कल्याण के लिए 392 रुपए और विज्ञान के लिए मात्र 216 रुपए, पूरे साल के लिए। दरअसल, बजट जनता के हित के लिए होता ही नहीं है। यह सरकार के लिए ही होता है। संसद से बजट न पास हो तो सरकार को अपने खर्चों के लाले पड़ जाते हैं। भारत में इसकी नौबत अभी तक नहीं आई है। लेकिन दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका में बराबर यह संकट आता रहता है।

तो फिलहाल, मौज कीजिए। निर्मला ताई की मेहरबानी को सलाम कीजिए और विकसित भारत का सपना देखते रहिए, तब तक, जब तक सरकार सपने देखने पर भी टैक्स नहीं लगा देती। सुनने में आ रहा है कि इस बार बजट में यूपीआई ट्रांजैक्शंस पर भी टैक्स लगाया जा सकता है…

ऐसा हो गया है तो कल्याण ही कल्याण है…

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