नए टेकओवर कोड से 76 बड़ी कंपनियों पर घहराया विदेशी अधिग्रहण का खतरा

सी अच्युतन कमिटी की तरफ से पेश किए गए नए टेकओवर कोड को अपनाने में अभी वक्त लगेगा। यह भी संभव है कि पूंजी बाजार नियामक संस्था, सेबी 31 अगस्त तक प्रतिक्रियाएं मिलने के बाद इसमें फेरबदल कर दे। लेकिन अगर इसकी मूल सिफारिशों को अपना लिया गया तो इससे देश की कम से कम 76 बड़ी सूचीबद्ध कंपनियों के विदेशी अधिग्रहण का खतरा बढ़ जाएगा।

ब्रोकर फर्म एसएमसी कैपिटल्स के एक अध्ययन के अनुसार बीएसई-500 में शामिल 215 कंपनियां ऐसी हैं जिनमें प्रवर्तकों की हिस्सेदारी 50 फीसदी से कम है। इनमें से भी 76 कंपनियां ऐसी हैं जिनमें प्रवर्तकों से अलग कोई एक निवेशक 10 से 49.99 फीसदी तक हिस्सेदारी रखता है। यही वो कंपनियां हैं जिनमें निवेशक पहले चरण में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाकर 25 फीसदी कर सकता है और बाद में नए कोड के प्रावधानों के मुताबिक वह कंपनी की सारी की सारी 100 फीसदी इक्विटी खरीद सकता है। यही नहीं, 90 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी हो जाने के कारण वह कंपनी को स्टॉक एक्सचेंजों से डीलिस्ट भी करा सकता है।

एमएसी कैपिटल्स के इक्विटी प्रमुख जगन्नाधन तुनगुंटला का कहना है कि किसी भी भारतीय निवेशक के लिए कंपनी का अधिग्रहण करना पहले से मुश्किल हो गया है क्योंकि अभी तक उसे पहले चरण में 15 फीसदी और फिर 20 फीसदी शेयर खरीदने के लिए धन का इंतजाम करना पड़ता है। लेकिन अब उसे शुरू में 25 फीसदी और बाद में बाकी सारी 75 फीसदी इक्विटी खरीदने के लिए धन जुटाना पड़ेगा। इतनी रकम जुटाना किसी भी भारतीय निवेशक के लिए मुश्किल है क्योंकि बैंक या कहीं और से उसे इतना फाइनेंस आसानी से नहीं मिल पाएगा। लेकिन विदेशी निवेशकों के सामने ऐसी कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि उनके पास धन जुटाने के बहुतेरे साधन हैं। इसलिए उन उद्योग क्षेत्रों में जिनमें एफडीआई की कोई सीमा नहीं है, विदेशी अधिग्रहणकर्ताओं के लिए भारतीय कंपनियों का शिकार करना आसान हो गया है।

इसलिए नए प्रस्ताविक कोड से भले ही कंपनी के प्रवर्तकों और आम शेयरधारकों को एकसमान मूल्य मिलने की सुविधा मिल रही हो, लेकिन इससे 50 फीसदी से कम इक्विटी हिस्सेदारी वाले प्रवर्तकों की रातों की नींद हराम हो सकती है। इसलिए वे फटाफट अपनी हिस्सेदारी बढ़ाकर कम से कम 50 फीसदी करने की कोशिश में लग जाएंगे। फिर भी यह तो होगा ही कि नए कोड के आने से भारतीय कॉरपोरेट क्षेत्र में अधिग्रहण का दौर शुरू हो सकता है। प्रवर्तक मान गए तो यह प्यार से होगा, नहीं तो तकरार और दुश्मनी के बीच उनसे कंपनियां छीन ली जाएंगी।

जिन 76 बड़ी कंपनियों पर फिलहाल अधिग्रहण का खतरा ज्यादा सघन है, उनमें से पांच प्रमुख नाम हैं मोजर बेयर, अपोलो हॉस्पिटल्स, इंडिया सीमेंट्स, आलोक इंडस्ट्रीज और इंडिया बुल्स सिक्यूरिटीज। मोजर बेयर में जहां प्रवर्तकों के पास 16.29 फीसदी शेयर हैं, वहीं उसके उसके सबसे बड़े शेयरधारक वॉरबर्ग पिनकस के पास 13.10 फीसदी शेयर हैं जो किसी दिन आगे बढ़कर प्रवर्तकों को दबा सकता है। अपोलो में रेड्डी परिवार के पास 33.54 इक्विटी है, जबकि उनसे भिन्न निवेशक एपैक्स पार्टनर्स के पास 13.80 फीसदी शेयर हैं। इंडिया सीमेंट में जहां प्रवर्तकों की हिस्सेदारी 25.18 फीसदी है, वहीं एलआईसी के पास 13.44 फीसदी और एचएसबीसी के पास 12.10 फीसदी शेयर हैं। इसी तरह आलोक इंडस्ट्रीज में प्रवर्तकों से अलग निवेशक कैलेडोनिया के पास 12.33 फीसदी तो इंडिया बुल्स सिक्यूरिटीज में एचएसबीसी ग्लोबल के पास 14.84 फीसदी शेयर हैं।

अधिग्रहण की आसान शिकार बन सकनेवाली ऐसी अन्य प्रमुख कंपनियां हैं – आईटीसी, केसोराम इंडस्ट्रीज, जिंदल सॉ, लार्सन एंड टुब्रो, महिंद्रा एंड महिंद्रा, वोल्टास, आर्किड केमिकल्स, श्रीराम ईपीसी, गल्फ ऑयल, गुजरात नर्मदा फर्टिलाइजर और ग्रासिम इंडस्ट्रीज। बहुत संभव है कि इन तमाम कंपनियों में प्रवर्तक अब अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने का सिलसिला शुरू कर दें। वैसे, आईटीसी और एल एंड टी जैसी कंपनियों में तो कोई प्रवर्तक ही नहीं है और ये प्रोफेशनल्स द्वारा चलाई जा रही कंपनियां हैं। इनमें एलआईसी सबसे बड़ी शेयरधारक है।

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