हमारी बचत दर भले ही लगभग 32 फीसदी है, लेकिन इसका केवल एक तिहाई हिस्सा ही बैंकों तक पहुंच पाता है। बैंकों और वित्तीय संस्थानों के प्रतिनिधियों ने गुरुवार को वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के साथ बजट-पूर्व बैठक में यह मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा कि उन कमियों को दूर करने की जरूरत है, जिनका सामना बैंकों को जमा राशि जुटाने के लिए करना पड़ता है। आकड़ों के मुताबिक 2008-09 भारतीय घरों की बचत का 52.8 फीसदी हिस्सा बैंकों के जमा खातों में आया था। लेकिन 2010-11 में लोगों ने अपनी 42 फीसदी बचत ही बैंकों में जमा कराई।
वैसे, लगता नहीं है कि वित्त मंत्री बैंकों की इस समस्या को सुलझाने पर ध्यान देंगे क्योंकि लोगों की बचत का बड़ा हिस्सा सरकार को आसानी से मिल जाता है। लोग अपनी बचत डाकघर या राष्ट्रीय बचत प्रमाणपत्र जैसी लघु स्कीमों में लगाते हैं जिससे सरकार का वित्त पोषण हो जाता है। साथ ही आम लोगों को अब भी सोने या रीयल एस्टेट में निवेश ज्यादा सुरक्षित लगता है। इसलिए भी वे बैंकों में कम धन रखते हैं। फिर भी शेयर बाजार, म्यूचुअल फंड व बीमा क्षेत्र की तुलना में हमारे बैंक काफी भाग्यशाली हैं।
बैंकों ने यह मसला भी उठाया कि भारत में उधार व जीडीपी का अनुपात दुनिया में बेहद कम है। इसे बढ़ाने जाने की जरूरत है। उनकी तरफ से बैठक में कहा गया कि महंगी पढ़ाई को देखते हुए शिक्षा ऋण गांरटी योजना शुरू करना अच्छा रहेगा। बैठक में सुझाव आया कि पेंशन फंड और दीर्घकालिक निधियों के लिए एक अलग कराधान विंडो होनी चाहिए। प्रतिनिधियों ने मांग की कि बैंकों को कर-मुक्त इंफ्रास्ट्रक्चर बांड जारी करने की इजाजत दी जाए। बैठक में इंफ्रास्ट्रक्चर के साथ ही कृषि व एसएमई ऋण को बढ़ावा देने की जरूरत और खाद्य मुद्रास्फीति के बारे में विशेष चर्चा की गई।
वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने बैठक में स्वीकार किया कि वर्तमान वित्त वर्ष के दौरान जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) की विकास दर करीब 7.2 फीसदी रहेगी। साथ ही यूरोजोन के संकट और अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल जैसी वस्तुओ की कीमतों में उतार-चढ़ाव के कारण विश्व अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता बनी हुई है। इसे देखते हुए राजकोषीय़ घाटे को जीडीपी के 4.6 फीसदी तक बांधने का बजट लक्ष्य हासिल करना मुश्किल हो सकता है।