सच बेनक़ाब, बीस सालों से देश से हर दिन मिट रहे हैं 2035 किसान

जनगणना के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि देश में 1991 के बाद से किसानों की संख्या करीब 1.50 करोड़ घट गई है, जबकि 2001 के बाद यह कमी 77 लाख से थोड़ी ज्यादा है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो पिछले बीस सालों में हर दिन औसतन 2035 काश्तकार या किसान अपनी स्थिति से बेदखल होते जा रहे हैं। जानेमाने कृषि विशेषज्ञ और अंग्रेज़ी अखबार ‘द हिंदू’ में ग्रामीण मामलों के संपादक पी साईनाथ ने अपने एक ताज़ा लेख में इस तथ्य का खुलासा किया है।

साल 2011 में हुई जनगणना के मुताबिक देश में ऐसे काश्तकारों की संख्या 9.58 करोड़ है जिनका मुख्य पेशा खेती है जो देश की कुल 121 करोड़ की आबादी के आठ फीसदी से भी कम है। यह संख्या 1991 में 11 करोड़ और 2001 में 10.3 करोड़ दर्ज की गई थी। काश्तकारों की संख्या 9.58 करोड़ में 2.28 करोड़ सीमांत खेतिहरों को भी जोड़ दें तो कुल संख्या 11.86 करोड़ निकलती है जो कुल आबादी का दस फीसदी भी नहीं ठहरती। नोट करने की बात यह है कि 1981 में देश में काश्तकारों की संख्या 9.20 करोड़ थी जो 1991 तक बढ़कर 11 करोड़ तक पहुंच गई थी। 1991 में देश में आर्थिक सुधार शुरू हुए और तभी से किसान तेज़ी से ‘गायब’ होने लग गए।

सवाल उठता है कि हर दिन खेती से बेदखल होनेवाले 2000 से ज्यादा किसान जा कहां रहे हैं? वे या तो खुदकुशी कर रहे हैं या शहरों-कस्बों में भागकर तथाकथित ‘सर्विस सेक्टर’ में खटाली कर रहे हैं। किसी बिल्डिंग में मजूदरी, कहीं रिक्शा चलाने या कुली का काम करने के कुछ महीने-साल भर बाद गांव लौटते हैं तो टीबी या दमा जैसी बीमारियों से दम तोड़ देते हैं। बहुत सारे तो अपने साथ एड्स जैसी बीमारियां गांव ले जाते हैं। योजना आयोग से जुड़े इंस्टीट्यूट ऑफ एप्लायड मैनपावर रिसर्च (आईएएमआर) ने दिसंबर 2012 में जारी रिपोर्ट में कहा है, “कुल रोज़गार के साथ-साथ गैर-कृषि क्षेत्रों में रोज़गार नहीं बढ़ रहा। हाल के सालों में हुए इस रोज़गार-रहित विकास ने कैजुअल मज़दूरों और असंगठित क्षेत्र को बढ़ावा दिया है।”

रिपोर्ट के अनुसार 1.50 करोड़ मज़दूर खेती से निकलकर सेवा क्षेत्र और उद्योग में चले गए हैं। यह भी हुआ है कि बहुत से काश्तकार खेती में रहते हुए भी कृषि मजदूर की स्थिति में जा पहुंचे हैं। कृषि क्षेत्र में चल रहे इस ‘भूकम्प’ के बाद आखिर अब देश में कुल कितने किसान बचे रह गए हैं? हमने ऊपर देखा कि काश्तकारों और सीमांत खेतिहरों की कुल संख्या 2011 की जनगणना के मुताबिक 11.86 करोड़ है। इसमें खेतिहर मज़दूरों को भी मिला दें तो कुल संख्या 26.30 करोड़ बैठती है। यह देश की आबादी की 22 फीसदी भी नहीं है।

फिर कैसे ढिढोरा पीटा जाता है कि भारत की आबादी का 53 फीसदी हिस्सा किसान हैं? कतई नहीं। यह सरासर गलत है। हालांकि यह सच है कि देश के 60 करोड़ से ज्यादा लोग खेती पर निर्भर हैं। लेकिन ये सभी किसान नहीं हैं। इनमें से आधे से ज्यादा लोग खेती के अलावा तमाम दूसरे कामों से अपना रोज़ी-रोजगार चलाते हैं। किसानों की खुदकुशी पर सरकारी तर्क है कि 100 में से 53 भारतीय किसान हैं। इसलिए अगर 1995 के बाद से कुछ 2,70,940 किसानों से आत्महत्या की है तो यह संख्या 64.13 करोड़ किसानों की 0.042 फीसदी भी नहीं है। यह आमतौर पर हो रही आत्महत्याओं से इतना ज्यादा कम है कि यह तो आत्महत्याओं को घटाकर लाने का आदर्श स्तर होना चाहिए। लेकिन अगर हम किसानों की असली संख्या 9.58 करोड़ के संदर्भ में देखें तो खुदकुशी करनेवालों किसानों का अनुपात 0.28 फीसदी के खतरनाक स्तर पर पहुंच जाता है।

भोपाल गैस त्रासदी दुनिया में अब तक का सबसे भयंकर औद्योगिक हादसा रहा है। उसमें करीब 20,000 जानें गई थीं। लेकिन इसके दस गुना से ज्यादा किसान गलत सरकारी नीतियों के कारण अपनी जान गवां चुके हैं। फिर भी उसे औसत से कम अनुपात बताकर नज़रअंदाज़ किया जा रहा है जिसका आधार बनता है यह झूठ कि देश की 53 फीसदी आबादी किसान है।

जनगणना में आबादी को कामगार और गैर-कामगार की श्रेणी में बांटा जाता है। गैर-कामगार की श्रेणी में बच्चे, विद्यार्थी, घरवालियां, बेरोज़गार, बूढ़े और रिटायर्ड लोग आते हैं। किसानों या काश्तकारों को कामगार की श्रेणी में रखा जाता है। ग्रामीण कामगार देश में कुल कामगारों की संख्या का तकरीबन 70 फीसदी हैं। और, ग्रामीण कामगारों में काश्तकार, खेतिहर मजदूर और गैर-कृषि मज़दूर सभी आते हैं। इसमें अगर काश्तकारों की बात की जाए तो उनकी संख्या देश की कुल आबादी के आठ फीसदी से भी कम रह गई है।

खेती-किसानी की हालत इतनी खराब है कि किसानों की खुदकुशी का सिलसिला थम नहीं हीं रहा। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक 2001 के बाद से देश में 1,84,169 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। वह भी तब, जब सरकार किसी न किसी तरीके से किसानों की आत्महत्या को छिपाती है। जैसे, खेती करनेवाला बड़ा बेटा खुदकुशी कर लें और ज़मीन बाप के नाम हो तो उसे किसान की आत्महत्या में नहीं गिना जाता है। ऐसे ही करतबों से छत्तीसगढ़ ने 2011 में खुद को किसानों की आत्महत्या से मुक्त राज्य घोषित कर दिया, जबकि 2006 से 2010 के बीच वहां 7500 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की थी। महाराष्ट्र में भी इसी तरह का फ्रॉड चल रहा है। वहां 1995 से लेकर अब तक 54,000 किसानों ने खुदकुशी की है। लेकिन किसानों के रिश्तेदार, गैर-वाजिब जैसी श्रेणियां बनाकर किसानों की आत्महत्या को छिपाने का काम चल रहा है। इसलिए हो सकता है कि महाराष्ट्र जैसे कई राज्य आनेवाले कुछ महीनों या साल में खुद को छ्त्तीसगढ़ की तरह किसानों की खुदकुशी से मुक्त राज्य घोषित कर दें। लेकिन इससे ज़मीनी हकीकत नहीं बदल जाएगी।

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