सुधाकर राम
संगीतकार को संगीत रचना चाहिए, कलाकार को कलाकृति बनानी चाहिए, कवि को लिखना ही चाहिए, अगर उसे आत्मसंतोष व अंदर की शांति हासिल करनी है। आप जो काम सबसे अच्छा कर सकते हैं, आपको वही करना चाहिए: अब्राहम मास्लो
हमारे बीच बहस चल रही थी, लेकिन तर्क-वितर्क वैसे ही थे जैसे आपके अपने किसी दोस्त के साथ हो सकते हैं। मेरा दोस्त एक जबरदस्त इंसान है जिसने अपनी जिंदगी तमिलनाडु में सरकारी स्कूल के बच्चों को गणित और साइंस पढ़ने-पढ़ाने में लगा दी है। पिछले दस सालों में उसने हजारों बच्चों पर सकारात्मक असर डाला है। लेकिन मैं उसे घेरने में लगा था।
मैंने उससे पूछा, “तुम हर किसी को आईआईटी में क्यो ले जाना चाहते हो? क्या दूसरे करियर नहीं हैं जो उनकी स्वाभाविक प्रतिभा के ज्यादा माफिक हों?” उसका कहना था, “बहुत सारे बच्चों के लिए दूसरे करियर हो सकते हैं, लेकिन उनके मां-बाप व नाते-रिश्तेदार गणित और साइंस को ही सबसे ज्यादा महत्व देते हैं। उनके मन में भरा हुआ है कि अगर उनका बच्चा इन विषयों में अच्छे नंबर नहीं ला पाता तो वह बुद्धू है। इसलिए मुझे बच्चे में आत्म-मूल्य व सम्मान की भावना भरने के लिए गणित और साइंस पर केंद्रित करना पड़ता है।”
इसके बाद दिन भर यही बात मेरे जेहन को मथती रही। मैं अपनी कामवाली से बात करने लगा जिसका 12 साल का बेटा पास के सरकारी स्कूल में सातवीं क्लास में पढ़ता है। कामवाली ने शिकायती लहजे में कहा कि वैसे तो उसका बेटा अपनी क्लास में चौथी रैंक लाता है, अंग्रेजी व गणित में उसके सबसे ज्यादा नंबर हैं, लेकिन साइंस, सोशल साइंस और तमिल जैसे दूसरे विषयों में वह केवल पासिंग नंबर ही ला पाता है। वह चाहती है कि वह कॉलेज में आगे की पढ़ाई करे, लेकिन बेटे की पढ़ाई-लिखाई में ज्यादा दिलचस्पी नहीं है। उसे कारपेंट्री या दूसरे क्राफ्ट में ज्यादा मजा आता है।
मुझे कुछ पुरानी बातें और अनुभव याद आ गए कि कैसे तमाम मां-बाप शिक्षा को समाज में आगे बढ़ने का पासपोर्ट मानते हैं और कुछ मामलों में यह सच भी है। लेकिन बहुत सारे गांवों में समस्या यह है कि बच्चा दसवीं की बोर्ड परीक्षा में फेल हो जाता है तो वह मान लेता है कि अब उसे खेती-बाड़ी या मजदूरी ही करनी है और उसे अच्छा काम नहीं मिल सकता। ऐसे नौजवान मदरगश्ती करने लगते हैं, अपने मां-बाप पर बोझ बन जाते हैं और गांवों में जितने भी गलत काम हो सकते हैं, उसके शिकार हो जाते हैं।
मेरा दृढ़ विश्वास है कि इस धरती पर जन्मे हर इंसान में अपना खास गुण और प्रतिभा होती है। अगर कोशिश की जाए और उसे उचित मार्गदर्शन मिले तो हर कोई अपने अंदर के हुनर व ताकत को निखार सकता है। हम में से हर किसी की अपनी राह होती है और वह दुनिया व समाज पर अपनी छाप छोड़ सकता है। लेकिन दुर्भाग्य से हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसा होने नहीं देती। वह हर किसी को एक ही खांचे में फिट करना चाहती है। फिर समाज और आर्थिक हालात की अपनी जटिलताएं हैं। खासकर भारत में जहां कुछ कामों में जबरदस्त सम्मान दिया जाता है तो बाकी को हेय माना जाता है।
यह बड़ा दुखद है कि जो शख्स इस दुनिया-समाज के लिए काम की चीज बनाने से जितना दूर है, वह उतना ही ज्यादा कमाता है। मान लीजिए कोई व्यक्ति एक्स कीमत का माल व सेवा उत्पादित करता है। लेकिन दूसरा व्यक्ति जो इस माल व सेवा की मार्केटिंग करता है, इन पर बिजनेस खड़ा करता है, वह इसका दस गुना यानी 10 एक्स कमाता है। और वह व्यक्ति जो इस बिजनेस को वित्तीय सहयोग देता है, वह 100 गुना यानी 100 एक्स कमाता है।
हमें खुद से पूछना चाहिए और अपने हित-मित्रों के साथ प्यार से बहस भी करनी चाहिए कि परस्पर निर्भरता और जुड़ाव के आज के दौर में आखिर यह कब तक चल सकता है या इसे कब तक चलने देना चाहिए। क्या अवसर व जानकारियां सब तक नहीं पहुंचनी चाहिए? क्या आज ऐसा नहीं होना चाहिए कि हमें अपनी योग्यता और अभिरुचि के हिसाब से काम करने का अवसर मिलना चाहिए, न कि केवल पैसे के लिए खास-खास नौकरियां या काम करते रहना चाहिए? क्या हमारी शिक्षा प्रणाली हम में हर किसी की वैयक्तिकता व अनोखेपन का सम्मान करने में सक्षम होगी और उसकी अंतर्निहित प्रतिभा का पोषण करेगी, उसे निखारेगी? यह सवाल मैं पूरी विनम्रता से पूरे समाज के सामने रखना चाहता है।
हमारी धरती अमर रहे…
(लेखक मास्टेक लिमिटेड के चेयरमैन व प्रबंध निदेशक हैं और उनका यह लेख मास्टेक फाउंडेशन द्वारा संचालित वेवसाइट द न्यू कंस्ट्रक्ट्स से साभार लिया गया है)