देश के बैक सड़क से लेकर बिजली जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र को ऋण देते-देते परेशान हो गए हैं। इस साल उन्होंने कुल मिलाकर उद्योग क्षेत्र को 14 फीसदी ही ज्यादा कर्ज दिया है जिसके चलते रिजर्व बैंक को कर्ज में इस वृद्धि का लक्ष्य 18 से घटाकर 16 फीसदी करना पड़ा है। लेकिन इस दौरान इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र को बैंकों से मिले कर्ज में 46 फीसदी की शानदार वृद्धि हुई है। यह कहना है खुद रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर ऊषा थोराट का। लेकिन इसके चलते बैंकों के सामने एसेट-लायबिलिटी के मिसमैच की समस्या आ खड़ी हुई है।
दिक्कत यह है कि बैंकों के पास जमा की गई राशि ज्यादातर एक से पांच साल की होती है, जबकि इफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं 15 से 20 साल की होती हैं। ऐसे में बैंक जिन इंफ्रा परियोजनाओं को ऋण देते हैं, उसकी ब्याज दर को उन्हें बार-बार एडजस्ट करना होता है। अभी स्थिति यह है कि बैंक ऐसे ऋणों की ब्याज दर को हर साल री-सेट करते हैं। ऊषा थोराट का कहना है कि इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र को ऋण देने में जोखिम है और यह पूरा का पूरा जोखिम अकेले बैंकिंग सेक्टर क्यों उठाए? इसके लिए बीमा और पेंशन क्षेत्र को तैयार करना चाहिए।
उन्होंने बताया कि बैंकों ने केंद्रीय वित्त मंत्रालय से मांग की है कि वह उन्हें लंबी अवधि यानी 10-15 साल के इंफ्रास्ट्रक्चर बांड जारी करने की इजाजत दे। रिजर्व बैंक अपनी तरफ से इन बांडों से जुटाई गई राशि को सीआरआर (बैंकों द्वारा अपनी जमा का वह हिस्सा जो उन्हें रिजर्व बैंक के पास रखना होता है। यह अभी 5 फीसदी है और 13 फरवरी से 5.50 फीसदी और 27 फरवरी से 5.75 फीसदी हो जाएगा) और एसएलआर (बैंकों की जमा का वह हिस्सा जो उन्हें सरकारी बांडों में लगाना अनिवार्य होता है। इसकी मौजूदा दर 25 फीसदी है) की गणना में शामिल नहीं किया जाएगा। रिजर्व इसके लिए तैयार है।
बैंकों को यह इजाजत मिलनी ही चाहिए।