खाद्य पदार्थों की बढ़ती महंगाई पर हायतौबा मची हुई है। कई विद्वान कहते फिर रहे हैं कि सरकार को आयात के जरिए इस महंगाई पर काबू पाना चाहिए। लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक से टो-टूक शब्दों में कह दिया है कि ऐसा करना संभव नहीं है क्योंकि दूसरे देशों में खाद्य पदार्थों की कीमतें हम से ज्यादा बढ़ी हैं। आज पेश की गई मौदिक्र नीति की तीसरी तिमाही की समीक्षा में रिजर्व बैंक के गवर्नर डॉ. डी सुब्बाराव की तरफ से कहा गया है कि खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के आंकड़ों के मुताबिक विश्व स्तर पर चीनी, अनाज और खाद्य तेलों के दामों में भारत की तुलना में कहीं ज्यादा वृद्धि हुई है। इसलिए घरेलू स्तर पर आयात करके खाद्य वस्तुओं की कीमतों पर काबू पाने की गुंजाइश बेहद कम है।
असल में रिजर्व बैंक दो बातों से परेशान है। एक तो यह कि थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दरों का फासला इधर काफी बढ़ चुका है, हालांकि दोनों में ही एक साल पहले की तारीख से अब तक के अंतर का प्रतिशत निकाला जाता है। दूसरा, यह कि आम लोगों को सीधे-सीधे प्रभावित करनेवाले खाद्य पदार्थों की कीमतें इधर काफी बढ़ गई हैं। वैसे, नीति बनाने के लिए रिजर्व बैंक का वास्ता मुख्य रूप से थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति से रहता है। लेकिन उसे इधर सब्जियों के दाम तक का हिसाब-किताब रखना पड़ रहा है। कारण, थोक मूल्य सूचकांक में खाने-पीने की चीजों का भार 27 फीसदी है। इसके चलते थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर दिसंबर में 7.3 फीसदी हो गई है। अगर खाद्य पदार्थों के असर को निकाल दें तो यह दर केवल 2.1 फीसदी रह जाती है।
वैसे, सुब्बाराव का कहना है कि रिजर्व बैंक और सरकार दोनों की राय है कि फिलहाल मुद्रास्फीति के दहाई अंक में जाने की आशंका नहीं है। अगर आगामी मानसून सामान्य रहा और कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय दाम मौजूदा स्तर पर बने रहे तो जुलाई से मुद्रास्फीति में कमी आ सकती है। दिलचस्प बात यह है कि यह दोनों ही बातें न तो रिजर्व बैंक के वश में हैं और न ही हमारी सरकार के। हां, इतना जरूर है कि केंद्र सरकार अनाज के जिन भंडारों पर कुंडली मारकर बैठी है और राज्य सरकारें जिस तरह जमाखोरी से आंखें चुराए हुई हैं, वह स्थिति टूटे तो महंगाई से फौरी राहत जरूर मिल सकती है।
भंडार भरे हैं, पर पेट खाली
सरकारी भंडारों में निर्धारित मानक से तीन गुना ज्यादा अनाज, पिछले साल से बेहतर चीनी सत्र और सस्ते खाद्य तेलों की पर्याप्त उपलब्धता!… इसके बाद भी महंगाई मार रही है। दरअसल सरकार खाद्य अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में बुरी तरह चूक गई है। शुक्रवार को संसद में चीनी की कीमतों में व़ृद्धि के बहाने प्रधानमंत्री ने इसे असफलता को स्वीकार भी कर लिया।
उचित समय पर सही निर्णय लेने में खाद्य मंत्रालय से भी लगातार चूक हुई है। यही कारण है कि भंडारों में ठसाठस भरे अनाज के बावजूद वह महंगाई रोकने में इसका इस्तेमाल नहीं कर सका है। खुले बाजार में हस्तक्षेप करने की सरकारी नीतियों पर समय पर अमल नहीं करने से हालात और बिगड़ गये हैं। चीनी मिलों को कोटा जारी करने और उस पर सख्ती बरतने में भी चूक हुई है। कोटा इस्तेमाल को लेकर जब चीनी मिलों पर कड़ाई करने का समय था तब सरकार चीनी की कीमतों में स्वभाविक तौर पर कमी होने का इंतजार करती रही।
अनाज भंडार इस कदर भरे हैं कि रबी का अनाज रखने की चुनौती है। लेकिन इन भरे गोदामों से महंगाई कतई नहीं डरती। एक जनवरी 2010 को सरकारी भंडारों में गेहूं 230 लाख टन था, जो निर्धारित बफर मानक 82 लाख टन से लगभग तीन गुना अधिक है। इसी तरह चावल 242 लाख टन था, जो बफर मानक 118 लाख टन से बहुत अधिक है।
चीनी के इतने भड़कने की कोई वजह नहीं है। पेराई सत्र शुरु होते समय चीनी का कैरीओवर स्टॉक 24 लाख टन था। चालू पेराई सत्र में 160 लाख टन से अधिक चीनी उत्पादन का अनुमान है। घरेलू खपत के लिए 230 लाख टन चीनी चाहिए। कमी को पूरा करने के लिए 50 लाख टन चीनी का आयात सौदा पक्का हो चुका है। दूसरे शब्दों में कहें चालू वर्ष के लिए चीनी का पर्याप्त स्टॉक देश में है, फिर भी इसकी कीमतें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मंदी के चलते घरेलू बाजार में भी खाद्य तेलों के मूल्य लगभग स्थिर है। आयातित खाद्य तेल का स्टॉक भी पिछले साल के 65 लाख टन के मुकाबले 85 लाख टन तक पहुंच चुका है। यानी जिंस बाजार में दाल को छोड़कर किसी और खाद्यान्न की उपलब्धता कम नहीं है। खाद्य मंत्रालय के पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि आखिर इतने मजबूत आंकड़ों के बावजूद महंगाई बढ़ने की वजह क्या थी?
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एसपी सिंह