ब्याज बढ़ाना जरूरी तो नहीं!

इला पटनायक

मुद्रास्फीति का बढ़कर दहाई अंक में पहुंच जाना चिंता का मसला है। थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) पर आधारित यह दर अगले कुछ हफ्तों तक और बढ़ेगी। लेकिन उसके बाद यह घटेगी। हमारे नीति-नियामकों को ब्याज दर बढ़ाने से पहले यह बात ध्यान में रखनी चाहिए। वैसे रिजर्व बैंक के नीतिगत उपाय अभी तक कमोबेश दुरुस्त ही रहे हैं।

मुद्रास्फीति इसलिए भी चिंता का मसला है क्योंकि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) बढ़ रहा है। महीने से महीने की तुलना करने पर यह जनवरी में औद्योगिक मजदूरों के लिए सालाना आधार पर 20 फीसदी बढ़ा है। इससे तो यही लगता है कि जब साल से साल की तुलना की जाएगी तो यह आंकड़ा और विकराल हो सकता है। इसके बावजूद मुद्रास्फीति में आगे का अनुमान काफी हद तक घटने का नजर आता है।

जून से दिसंबर 2009 तक खाने-पीने की चीजों के दामों में भारी वृद्धि हुई, लेकिन अब इनसे जुड़ी मुद्रास्फीति का बढ़ना लगभग ठहर गया है। खाद्य व ईंधन की कीमतें ठहर गई हैं तो अब सारा ध्यान डब्ल्यूपीआई में मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर पर रहेगा जिसमें महंगाई की दर 5 फीसदी के आसपास है। दिक्कत यह है कि भारत में मुद्रास्फीति का आंकड़ा साल से साल की तुलना में निकाला जाता है। इसलिए ताजा हाल कुछ और रहता है और आंकड़ा कुछ दूसरी ही तस्वीर पेश करता है। जैसे, महीने-महीने की तुलना के आधार पर अगली छमाही में सुधार नजर आ रहा है, जबकि सालाना आंकड़े अब भी ऊंची मुद्रास्फीति दिखा रहे हैं। इससे होता यह है कि रिजर्व बैंक पर ब्याज दरें बढ़ाने का दबाव बढ़ जाता है।

मुश्किल यह भी है कि हमारा रिजर्व बैंक बेहद अपारदर्शी केंद्रीय बैंक है। इसकी तरफ से दी गई सूचनाएं पूरी तस्वीर नहीं पेश करतीं और असलियत समझने के लिए काफी मगजमारी या विश्लेषण करना पड़ता है। हाल के महीनों में रिजर्व बैंक ने सीआरआर (नकद आरक्षित अनुपात) बढ़ाने के अलावा खास कुछ घोषित तौर पर किया भी नहीं है। लेकिन थोड़ा सा गहराई से आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि अघोषित तौर पर अक बड़ा मौद्रिक संकुचन चल रहा है। मुद्रा के प्रसार में कमी आ रही है।

मौद्रिक हालाता का एक अहम संकेतक होती है मुद्रा आपूर्ति की वृद्धि दर। यह जुलाई 2009 में 21 फीसदी से अधिक थी, लेकिन फरवरी 2010 में घटकर 16 फीसदी के करीब आ गई है। पारंपरिक रूप से कहें तो मुद्रा की आपूर्ति हमारे यहां इसलिए बढ़ती रही है क्योंकि रिजर्व बैंक रुपए की विनिमय दर को नियंत्रित करने के लिए बाजार से डॉलर खरीदता रहा है ताकि रुपए डॉलर के सापेक्ष मजबूत न हो जाए। लेकिन 26 मार्च 2007 के बाद से रिजर्व बैंक का रुख बदल गया है। पिछले साल रिजर्व बैंक ने बाजार से लगभग न के बराबर विदेशी मुद्रा खरीदी। यही वजह है कि डॉलर के सापेक्ष रुपया मजबूत होकर 50 से अब 45.50 पर आ गया है। पहले डॉलर खरीदने पर उसके अनुरूप मात्रा में रुपया सिस्टम में डालना पड़ता था। लेकिन अब ऐसा न होने से अर्थव्यवस्था में रुपया डालने की गति धीमी हो गई है। दूसरी बात यह है कि ऋण की मांग कम रही है जो गैर-खाद्य ऋण के बढ़ने की धीमी रफ्तार से जाहिर होता है। इन वजहों से पिछले छह महीनों में मुद्रा की सप्लाई बढ़ने की गति तेजी से घटी है।

खुली अर्थव्यवस्था में मौद्रिक हालात के अलावा मुद्रास्फीति पर विदेशी मुद्रा की विनिमय दरों और विश्व कीमतों का भी असर प़ड़ता है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार के बाद विश्व स्तर पर कीमतें बढ़ने लगी हैं। अगर डॉलर-रुपए की विनिमय दर वही रहती है तो दुनिया की कीमतों का सीधा असर भारत में भी कीमतों के बढ़ने में नजर आएगा। रुपया कमजोर होता है तब भी कीमतें बढ़ेंगी। लेकिन अगर रुपया मजबूत होता है यानी एक डॉलर पहले से कम रुपए में मिलने लगता है तो अंतरराष्ट्रीय कीमतों का असर देश में पड़ने से रोका जा सकता है। रिजर्व बैंक को मुद्रास्फीति पर कोई कदम उठाने से पहले इस पहलू पर गौर करना चाहिए।

मुद्रास्फीति को रोकने का एक तरीका है ब्याज दरें बढ़ा देना। अगर ऐसा हुआ तो विदेश से और ज्यादा पूंजी देश में आएगी। नतीजतन रुपया और मजबूत हो जाएगा। दूसरा विकल्प है कि विदेशी पूंजी आने की राह और आसान बना दी जाए। अगर सरकार घरेलू बांडों में विदेशी निवेश की बाधाएं दूर कर देती है तो एक तीर से दो निशाने सध सकते हैं। पहला, इससे रुपया मजबूत होगा और मुद्रास्फीति घटेगी। दूसरा, इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं और घरेलू उद्योग की फाइनेंसिंग अच्छी हो जाएगी।

दुनिया भर में केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ाकर मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने में कामयाब इसलिए रहते हैं क्योंकि उनके देशों में अच्छा-खासा बांड बाजार काम कर रहा है। अपने यहां तो बांड बाजार मरी-गिरी हालत में है। बैंकिंग सिस्टम में तमाम अवरोध है। इसलिए मुद्रास्फीति को रोकने के लिए ब्याज दरें बढ़ाने का यांत्रिक मंत्र यहां काम नहीं आएगा। वैसे भी ब्याज दरों में तब्दीली से जुड़ी रेपो और रिवर्स रेपो दरों में बदलाव का असर बैंकों की असल ब्याज दरों तक पहुंचने में महीनों लग जाते हैं। रिज्रर्व बैंक चाहे तो साफ कर सकता है कि कैसे बिना ब्याज दरें बढ़ाए वह मुद्रा की आपूर्ति को सीमित कर रहा है। यह अलग बात है कि आज के हालात में उस पर हर तरफ से ब्याज दरें बढ़ाने का दबाव पड़ रहा है।

हमारी विपक्षी पार्टियों ने मुद्रास्फीति को लेकर गदर काट रखा है। मुश्किल यह है कि सरकार व रिजर्व बैंक के हाथ में वह लीवर से नहीं है जिससे वे मुद्रास्फीति को नीचे ला सकें। इसका सबसे अहम तरीका होता है छोटी अवधि की ब्याज दरों यानी रेपो व रिवर्स रेपो दरों को बढ़ा देना। लेकिन तरीका भारत में वित्तीय क्षेत्र के सुधारों के अभाव के चलते कारगर नहीं है। इसलिए रिजर्व बैंक व सरकार दोनों को देश के वित्तीय बाजारों को मजबूत बनाने के हरसंभव उपाय करें तभी मौद्रिक नीति के उपाय अपना पूरा असर दिखा पाएंगे।

लेखिका दिल्ली के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं। उनका यह लेख इंडियन एक्सप्रेस से साभार लिया गया है।

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