बुरे का बोलबाला, अच्छे का मुंह काला!

दुनिया ही नहीं, इस सृष्टि की हर चीज हर पल बदलती रहती है। लेकिन परिवर्तन का यह नियम अगर आप किसी आम किसान से पूछेंगे तो वो कहेगा कि ऐसा नहीं है क्योंकि उसकी दुनिया तो कभी बदलती ही नहीं। सूरज के निकलने से लेकर डूबने तक का वही चक्र। न सावन हरे, न भादो सूखे। देश के आम आदमी से पूछेंगे तो वह भी कहेगा कि हां, चीजें बदलती जरूर हैं, लेकिन बेहतर नहीं, बदतर ही होती चली जाती हैं। लेकिन यह परिस्थिति-जन्य सोच है, हकीकत नहीं। आज का जमाना विकास का जमाना है। विकास की यात्रा में सबको शामिल करने का जमाना है। यहां हर पल बदलाव का सूत्र ही अपनाकर चलना पड़ेगा। चलिए देखते हैं, बीते हफ्ते हमने क्या कुछ नया जाना-समझा…

  • कंपनियों के सामने चुनौती होती है साल दर साल ही नहीं, हर तिमाही लगातार बढ़ते रहने की। कभी 15 तो कभी 20 फीसदी या इससे भी ज्यादा तो और भी अच्छा। किसी तिमाही झटका लगा तो हम-आप मुंह बनाने लगते हैं कि कैसी कंपनी है जो बढ़ती नहीं। निरंतर विकास की इसी जरूरत को पूरा करने के लिए वित्तीय बाजार, खासकर शेयर बाजार अस्तित्व में आया। लेकिन धीरे-धीरे यह लोगों की बचत को खींचने का नहीं, लूटने का जरिया बन गया है। यहां अंधाधुंध सट्टेबाजी से नोट के पहाड़ खड़े किए जा रहे हैं। स्टॉक एक्सचेंजों समेत सेबी जैसी नियामक संस्थाओं का काम है इसे रोकना। लेकिन उन्होंने ‘सब चलता है’ का रवैया अपना रखा है।
  • शेयर बाजार ही वह ठौर है जहां पहुंचाकर अपनी बचत को हम मुद्रास्फीति के क्षयकारी असर से बचा सकते हैं। चूंकि भारत सरकार की तरफ से सरकारी दामादों को छोड़कर किसी भी भारतीय को सामाजिक सुरक्षा नहीं मिली है। इसलिए हारी-बीमारी से लेकर बच्चो की पढ़ाई-लिखाई, शादी-ब्याज व अपने रिटायरमेंट तक के लिए हमें खुद ही बचाना पड़ता है। लेकिन सरकार शायद लंबे समय तक सामाजिक सुरक्षा दे भी नहीं सकती। यूरोप में तो थी व्यक्ति को पूरी आजादी देनेवाली सामाजिक सुरक्षा। लेकिन यूरोप की सरकारें ऋण संकट में फंस गई। आज वे मजबूरन खर्च घटा रही हैं तो ग्रीस से लेकर इटली व स्पेन तक में सड़कों पर बवाल मच गया है।
  • अपनी हिफाजत के लिए निवेश तो हमें खुद ही करना पड़ेगा। काश! भारत सरकार मुद्रास्फीति को बेअसर करनेवाला कोई बांड जारी कर देती तो आम आदमी को अपनी बचत को खोखला होने से बचाने के लिए ज्यादा मगजमारी नहीं करनी पड़ती। दिक्कत यह भी है कि हमारे यहां सक्रिय 42 म्यूचुअल फंडों में से किसी को भी अपने ऊपर इतना भरोसा नहीं है कि वे मुद्रास्फीति की काट के लिए कोई इनफ्शेलन स्कीम पेश कर सकते हैं। सारे फंड हज़ारों स्कीमों के जरिए बस लोगों को चरका पढ़ाकर धंधा चमकाने में जुटे हैं।
  • बहुत सारी कंपनियां बहुत सारी वजहों से इल्लिक्विड हो जाती हैं। लेकिन बी ग्रुप की किसी अच्छी-खासी कंपनी में अगर बिना किसी वजह के दिन भर में केवल एक शेयर की खरीद-फरोख्त हो तो हमारे पूंजी बाजार नियामक, सेबी को जरूर सोचना चाहिए कि बाजार में ऐसा सन्नाटा क्यों है भाई? यहां बुरे का बोलबाला, अच्छे का मुंह काला क्यों है?
  • दो बातें साफ हैं। पहली यह है कि शेयर बाजार में प्रतिस्पर्धा का होना निवेशकों के लिए अच्छा है। इसलिए सेबी को नए एक्सचेंज खोलने में रुकावट नहीं डालनी चाहिए। दूसरी यह कि निवेश करने से पहले देख लेना जरूरी है कि जो शेयर हम खरीदने जा रहे हैं, उसमें लिक्विडिटी कितनी है। ऐसा तो नहीं है कि हम उसमें ऐसे फंस जाएंगे कि कभी निकल ही नहीं पाएंगे।
  • शेयरों के भाव किस हद तक ग्लोबल और किस हद तक लोकल कारकों से प्रभावित होते है, इसका तो ठीकठाक कोई पैमाना नहीं है, लेकिन इतना तय है कि आज के जमाने में कंपनियों के धंधे पर दोनों कारकों का भरपूर असर पड़ता है। इसीलिए शायद अंग्रेजी के इन दोनों शब्दों को मिलाकर नया शब्द ‘ग्लोकल’ चला दिया गया है।

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