कहां हो विष्ण गुप्त!

दुत्कारा गया जानवर, भिखारी या गरीब किसी कोने में दुबक कर रह जाता है। वो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ पाता। लेकिन सत्ता के गलियारों से तिरष्कृत विष्णु गुप्त एक दिन चाणक्य बन पूरे नंद वंश का ही नाश कर नई सत्ता बना डालता है।

3 Comments

  1. क्‍या बात है, सुन्‍दर प्रेरक वाक्‍य है लेकिन अब स्‍थायी राजा नहीं होते, स्‍थायी तो अब व्‍यवस्‍था होती है या फिर कह लो कानून संविधान लोकतन्‍त्र होता है और इनसे कोई दुत्‍कारा नहीं जाता क्‍योकि ये ईश्‍वर की तरह होती है।

  2. Author

    हरिमोहन जी, यह सच है कि अब लोकतंत्र है, संवैधानिक व्यवस्था है। लेकिन हिसाब तो लगाइए कि कितने लोग इस व्यवस्था में शामिल हैं और कितने बहिष्कृत/तिरष्कृत? आजादी के 65 सालों में देश के एक भी किसान को पद्म पुरस्कार नहीं मिला है। क्या इस 70 फीसदी आबादी में से इतने सालों में एक भी बंदा इतना काबिल नहीं निकल पाया? देश के सबसे प्रतिभाशाली बच्चे प्रशासनिक सेवाओं में जाते हैं, लेकिन इंसान नहीं, मशीन का पुर्जा बनकर।
    आज के दौर पर अवतार सिंह पाश की कविता ‘युद्ध और शांति’ की चंद पक्तियां बहुत सटीक बैठती हैं…
    शान्ति गलीज विद्वानों के मुंह से टपकती लार है, शान्ति पुरस्कार लेते कवियों के बढ़े हुए बाजुओं का टुण्ड है, शान्ति वजीरों के पहने हुए खद्दर की चमक है। शान्ति और कुछ नहीं। या, शान्ति गाँधी का जांघिया है जिसकी तनियों को चालीस करोड़ लोगों को फांसी लगाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है…

  3. It was dark when I woke. This is a ray of sunsinhe.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *