उर्दू, हिंदवी और हिंदी

12वीं सदी की शुरुआत में मध्य एशिया से आने वाले लोग भारत में बसने लगे थे। वे अपने साथ चर्खा और कागज भी लाए जिसके बाद जिंदगी, तहज़ीब और ज़बान ने एक नया रंग अख्तियार करना शुरू कर दिया। जो फौजी आते थे, वे साथ लाते थे अपनी जबान खाने पीने की आदतें और संगीत। वे यहां के लोगों से अपने इलाके की जबान में बात करते थे जो यहां की पंजाबी, हरियाणवी और खड़ी बोली से मिल जाती थी और बन जाती थी फौजी लश्करी जबान जिसमें पश्तों, फारसी, खड़ी बोली और हरियाणवी के शब्द और वाक्य मिलते जाते थे।

13वीं सदी में सिंधी, पंजाबी, फारसी, तुर्की और खड़ी बोली के मिश्रण से लश्करी की अगली पीढ़ी आई और उसे सरायकी ज़बान कहा गया। इसी दौर में यहां सूफी ख्यालात की लहर भी फैल रही थी। सूफियों के दरवाज़ों पर बादशाह आते और अमीर आते, सिपहसालार आते और गरीब आते और सब अपनी अपनी जबान में कुछ कहते। इस बातचीत से जो जबान पैदा हो रही थी वही जम्हूरी जबान आने वाली सदियों में इस देश की सबसे महत्वपूर्ण जबान बनने वाली थी। इस तरह की संस्कृति का सबसे बड़ा केंद्र महरौली में कुतुब साहब की खानकाह थी। सूफियों की खानकाहों में जो संगीत पैदा हुआ वह आज 800 साल बाद भी न केवल जिंदा है बल्कि अवाम की जिंदगी का हिस्सा है।

अजमेर शरीफ में चिश्तिया सिलसिले के सबसे बड़े बुजुर्ग ख़्वाजा गऱीब नवाज के दरबार में अमीर गरीब हिन्दू, मुसलमान सभी आते थे और आशीर्वाद की जो भाषा लेकर जाते थे, आने वाले वक्त में उसी का नाम उर्दू होने वाला था। सूफी संतों की खानकाहों पर एक नई ज़बान परवान चढ़ रही थी। मुकामी बोलियों में फारसी और अरबी के शब्द मिल रहे थे और हिंदुस्तान को एक सूत्र में पिरोने वाली ज़बान की बुनियाद पड़ रही थी। इस ज़बान को अब हिंदवी कहा जाने लगा था। बाबा फरीद गंजे शकर ने इसी ज़बान में अपनी बात कही। बाबा फरीद के कलाम को गुरूग्रंथ साहिब में भी शामिल किया गया।

दिल्ली और पंजाब में विकसित हो रही इस भाषा को दक्षिण में पहुंचाने का काम ख्वाजा गेसूदराज ने किया। जब वे गुलबर्गा गए और वहीं उनका आस्ताना बना। इस बीच दिल्ली में हिंदवी के सबसे बड़े शायर हज़रत अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के चरणों में बैठकर हिंदवी जबान को छापा तिलक से विभूषित कर रहे थे। अमीर खुसरो साहब ने लाजवाब शायरी की जो अभी तक बेहतरीन अदब का हिस्सा है और आने वाली नस्लें उन पर फख्र करेंगी। हजरत अमीर खुसरों से महबूब-ए-इलाही ने ही फरमाया था कि हिंदवी में शायरी करो और इस महान जीनियस ने हिंदवी में वह सब लिखा जो जिंदगी को छूता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के आशीर्वाद से दिल्ली की यह जबान आम आदमी की जबान बनती जा रही थी।

उर्दू की तरक्की में दिल्ली के सुलतानों की विजय यात्राओं का भी योगदान है। 1297 में अलाउद्दीन खिलजी ने जब गुजरात पर हमला किया तो लश्कर के साथ वहां यह जबान भी गई। 1327 ई. में जब तुगलक ने दकन कूच किया तो देहली की भाषा, हिंदवी उनके साथ गई। अब इस ज़बान में मराठी, तेलुगू और गुजराती के शब्द मिल चुके थे। दकनी और गूजरी का जन्म हो चुका था। इस बीच दिल्ली पर कुछ हमले भी हुए। 14वीं सदी के अंत में तैमूर लंग ने दिल्ली पर हमला किया, जिंदगी मुश्किल हो गई। लोग भागने लगे। यह भागते हुए लोग जहां भी गए अपनी जबान ले गए जिसका नतीजा यह हुआ कि उर्दू की पूर्वज भाषा का दायरा पूरे भारत में फैल रहा था।

दिल्ली से दूर अपनी जबान की धूम मचने का सिलसिला शुरू हो चुका था। बीजापुर में हिंदवी को बहुत इज्जत मिली। वहां का सुलतान आदिलशाह अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय था, उसे जगदगुरू कहा जाता था। सुलतान ने स्वयं हजरत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम), ख्वाजा गेसूदराज और बहुत सारे हिंदू देवी देवताओं की शान में शायरी लिखी। गोलकुंडा के कुली कुतुबशाह भी बड़े शायर थे। उन्होंने राधा और कृष्ण की जिंदगी के बारे में शायरी की। मसनवी कुली कुतुबशाह एक ऐतिहासिक किताब है। 1653 में उर्दू गद्य (नस्त्र) की पहली किताब लिखी गई। उर्दू के विकास के इस मुकाम पर गव्वासी का नाम लेना जरूरी हैं। गव्वासी ने बहुत काम किया है इनका नाम उर्दू के जानकारों में सम्मान से लिया जाता है। दकन में उर्दू को सबसे ज्यादा सम्मान वली दकनी की शायरी से मिला। आप गुजरात की बार-बार यात्रा करते थे। इन्हें वली गुजराती भी कहते हैं। 2002 में अहमदाबाद में हुए दंगों में इन्हीं के मजार पर बुलडोजर चलवा कर नरेंद्र मोदी ने उस पर सड़क बनवा दी थी।

अकबर की राजधानी आगरा में थी जो ब्रज भाषा का केंद्र था और अकबर के दरबार में उस दौर के सबसे बड़े विद्वान हुआ करते थे। वहां अबुलफजल भी थे, तो फैजी भी थे, अब्दुर्रहीम खानखाना थे तो बीरबल भी थे। इस दौर में ब्रजभाषा और अवधी भाषाओं का खूब विकास हुआ। यह दौर वह है जब सूफी संतों और भक्ति आंदोलन के संतों ने आम बोलचाल की भाषा में अपनी बात कही। सारी भाषाओं का आपस में मेलजोल बढ़ रहा था और उर्दू जबान की बुनियाद मजबूत हो रही थी। बाबर के समकालीन थे सिखों के गुरू नानक देव। उन्होंने नामदेव, बाबा फरीद और कबीर के कलाम को सम्मान दिया और अपने पवित्र ग्रंथ में शामिल किया। इसी दौर में मलिक मुहम्मद जायसी ने पदमावती की रचना की जो अवधी भाषा का महाकाव्य है लेकिन इसका रस्मुल खत फारसी है।

दिल्ली में मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के बाद अवध ने दिल्ली से अपना नाता तोड़ लिया लेकिन जबान की तरक्की लगातार होती रही। दरअसल 18वीं सदी मीर, सौदा और दर्द के नाम से याद की जायेगी। मीर पहले अवामी शायर हैं। बचपन गरीबी में बीता और जब जवान हुए तो दिल्ली पर मुसीबत बनकर नादिर शाह टूट पड़ा। उनकी शायरी की जो तल्खी है वह अपने जमाने के दर्द को बयान करती है। बाद में नज़ीर की शायरी में भी ज़ालिम हुक्मरानों का जिक्र, मीर तकी मीर की याद दिलाता है।

1822 में उर्दू सहाफत की बुनियाद पड़ी जब मुंशी सदासुख लाल ने जाने जहांनुमा अखबार निकाला। दिल्ली से कांग्रेस के सम्मेलनों की भाषा भी उर्दू ही बन गई थी। 1916 में लखनऊ कांग्रेस में होम रूल का जो प्रस्ताव पास हुआ वह उर्दू में है। 1919 में जब जलियांवाला बाग में अंग्रेजों ने निहत्थे भारतीयों को गोलियों से भून दिया तो उस गम और गुस्से का इज़हार पं. बृज नारायण चकबस्त और अकबर इलाहाबादी ने उर्दू में ही किया था। इस मौके पर लिखा गया मौलाना अबुल कलाम आजाद का लेख आने वाली कई पीढिय़ां याद रखेंगी। हसरत मोहानी ने 1921 के आंदोलन में इकलाब जिंदाबाद का नारा दिया था जो आज न्याय की लड़ाई का निशान बन गया है। आज़ादी के बाद सीमा के दोनों पार जो क़त्लो ग़ारद हुआ था उसको भी उर्दू जबान ने संभालने की पूरी को कोशिश की।

हमारी मुश्तरका तबाही के खिलाफ अवाम को फिर से लामबंद करने में उर्दू का बहुत योगदान है। आज यह सियासत के घेरे में है। हिंदी और उर्दू को अलग कर दिया गया है। लेकिन सच कहें तो उर्दू और हिंदी में फर्क सिर्फ लिपि का है। पूरा व्याकरण एक है। वहां फारसी व अरबी के शब्द जुड़ गए हैं तो यहां संस्कृत के। एक बात हमेशा के लिए नोट कर लें कि उर्दू का जन्म हिंदुस्तान में हुआ है। उसका उसका मुस्लिम धर्म से उसी तरह कोई लेना-देना नहीं हैं जिस तरह हिंदी जानने-पढ़ने का मतलब हिंदू हो जाना नहीं होता। हिंदी अपने स्रोत से जुड़ रही है। इसलिए गौर कीजिए कि गानों से लेकर नई पीढ़ी तक के बोलचाल में उर्दू के शब्द बढ़ रहे हैं।

शेष नारायण सिंह (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और इतिहास के शोधार्थी हैं। विस्फोट (विस्फोट डॉट कॉम)पर छपे उनके लेख का संपादित अंश)

3 Comments

  1. उर्दू की वास्तविकता जानने के लिये रामविलास शर्मा को पढ़िये।

    आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि पाकिस्तान के किसी भी व्यक्ति की मातृभाषा उर्दू नहीं है। वहाँ सिंधी, पंजाबी, आदि चलतीं हैं।

    भारत में भी कुछ राजाओं के यहां उर्दू सीमित थी। यहाँ तो फारसी भी उर्दू से अधिक चलती थी। अंग्रेजों ने जब न्यायालयों से फारसी हटाकर उर्दू थोपी और हिन्दी-उर्दू में विद्वेश पैदा करने के लिये उर्दू का हौवा खड़ा किया। अन्यथा अमीर खुसरो, कबीर, रहीम, रसखान, जायसी और गाँवों में बसे सारे मुसलमान ‘हिन्दी’ बोलते थे।

  2. एक बात छूट गयी। मुसलमान बंगाल में भी खूब थे। पंजाब में भी थे; केरल में थे। आंध्र पर्देश में थे। क्यों केवल उर्दू जन्मी ? बंगाल में ऐसी किसी भाषा का जन्म नहीं हुआ। पंजाब में नहीं हुआ।

  3. आपका लेक बहुत ही जानकारी पूर्ण है ।
    न्यायालयों में (अदालतों में) भी उर्दू का ही प्रयोग होता था । हाल ही(7-8 साल पहले ) में जब मेरे जीजाजी ने झांसी में अपना पुश्तैनी मकान बेचा तो उसके सारे कगजात जो उर्दू में थे उनका हिंदी में तर्जुमा करवाना पडा । अमीर खुसरो की भाषा तो ुरदू से ज्यादा कहीं अधिक हिंदी से मिलती है । रहीम, रसखान वगैरा के काव्य की भाषा भी हिदी के ही निकट है ।

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