इस समय पूंजी बाजार से रिटेल निवेशक या आम निवेशक कन्नी काट चुके हैं। सेकेंडरी बाजार या शेयर बाजार में उनका निवेश लगभग सूख चुका है। दूसरी तरफ, जो प्राइमरी बाजार कुछ साल पहले तक आम निवेशकों का पसंदीदा माध्यम बना हुआ था, वहा भी अब आईपीओ (शुरुआती पब्लिक ऑफर) व एफपीओ (फॉलो-ऑन पब्लिक ऑफर) में लोगबाग पैसे नहीं लगा रहे हैं। लगाएं भी तो कैसे। कमोबेश हर आईपीओ या एफपीओ लिस्ट होने के बाद इश्यू मूल्य से नीचे चला जाता है। लेकिन मुश्किल कहां है? पूंजी बाजार की स्थितियों में या हमारी मानसिकता में।
बात बहुत सीधी-सी है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। बाजार जैसा भी है, वह एक हकीकत है, जिसे हम बदल नहीं सकते। वैसे भी, बाजार या कोई भी संस्था समय और हालात के दबाव में क्रमबद्ध रूप से आकार ग्रहण करती है। रातोंरात चमत्कार नहीं हुआ करते। हर्षद मेहता के जमाने से लेकर अब तक हमारा पूंजी बाजार (शेयर बाजार और पब्लिक इश्यू का बाजार) बहुत कुछ बदल चुका है। पारदर्शिता बढ़ चुकी है। अंकुश बढ़ चुके हैं। बाजार शक्तियों का स्वरूप और संघर्ष बढ़ चुका है। नई-नई प्रतिभूतियां आ गई हैं, नए-नए प्रपत्र आ चुके हैं। लेकिन इस दौरान अगर कुछ नहीं बदला है तो वह है हमारे-आप जैसे निवेशकों की मानसिकता।
हर्षद के जमाने में भी बहुत से लोग जाकर दिन भर किसी ब्रोकर के साथ एक्सचेंज के बाहर डट जाते थे और शाम को हजार-पांच सौ कमाकर घर लौट जाते थे। हर्षद का झटका लगा तो सब डूब गया। कानपुर, लुधियाना व मेरठ जैसे तमाम छोटे शहरों के ऐसे हजारों लोगों ने शेयर बाजार क्या, निवेश से ही मुंह फेर लिया। लेकिन आज भी बहुत से लोग शेयर बाजार को दिन का दिन में निपटा देने का धंधा मानते हैं। मार्जिन पर खेलते हैं। ये लोग ट्रेडर हैं, निवेशक या इनवेस्टर नहीं। ट्रेडर मानसकिता के ये लोग इसी फिराक में लगे रहते हैं कि आज कौन-सा शेयर बढ़ेगा और कितना बढ़ेगा।
ऐसे ही लोग हैं जो अनधिकृत रूप से चल रही डब्बा ट्रेडिंग के शिकार हो जाते हैं। ये डब्बा कारोबारी टर्मिनल लगाकर उसके भावों के आधार पर सौदे करवाते हैं। लेकिन इनका स्टॉक एक्सचेंज से कोई लेना-देना नहीं होता। लोगबाग इनके दड़बों या दफ्तरों में जाते हैं। ट्रेडिंग करानेवाला इनके सौदे किसी रजिस्टर में दर्ज करता जाता है और शाम को अंतर (मार्जिन नहीं, डिफरेंस) ले-देकर हिसाब-किताब बराबर कर लिया जाता है। कानूनन यह पूरी तरह जुर्म है। कोई भी सेबी को इत्तला दे दे तो इन डब्बा ट्रेडरों के दड़बे बंद किए जा सकते हैं। लेकिन चूंकि ट्रेडर मानसिकता के निवेशक इनके पास जाते हैं तो मुंबई से लेकर अहमदाबाद व इंदौर तक में यह धंधा जोरों से चलता है। ये लोग सड़क के किनारे या ट्रेन के डिब्बों में ताश के छह पत्तों में बेगम पर दांव लगवाने जैसा ही काम करते हैं। उनके कुछ चंगू-मंगू दांव लगाकर जीतते हैं तो देखनेवाला भी सोचने लगता है कि शायद उसके भी 100 से 200 रुपए हो जाएंगे।
जो स्टॉक एक्सचेंज में डे-ट्रेडिंग करते हैं, उनकी भी मानसिकता इससे बहुत अलग नहीं है। लेकिन हमको-आपको शेयर बाजार में निवेश करते वक्त इस मानसिकता से मुक्ति पानी होगी। हमें ऐसी कंपनियां चुननी होंगी जो अपने वित्तीय कामकाज के आधार पर आगे बढ़ने की सामर्थ्य रखती हैं। मैं यह नहीं कहता कि किसी शेयर में दस साल के लिए निवेश करना चाहिए, क्योंकि दस साल का ही निवेश करना है तो सीधे इंडेक्स में (निफ्टी या सेंसेक्स) में करना चाहिए जिसके लिए ईटीएफ (एक्सचेंज ट्रेडेड फंड) की सुविधा उपलब्ध है। लेकिन शेयर बाजार में निवेश कम से कम छह महीने से साल भर का तो होना ही चाहिए।
हर दिन उठकर डीमैट खाता खोलकर या बीएसई, एनएसई की साइट पर भाव देखकर दिल की धड़कन बढ़ाने का कोई तुक नहीं। महीने-पंद्रह दिन में देख लिया, बहुत है। अगर इस बीच शेयर के भाव गिर गए हों तो थोड़ा और खरीद कर औसत लागत कम कर लेनी चाहिए। लेकिन पूर्व शर्त यही है जिस कंपनी में आपने निवेश किया है, वह फंडामेंटल के आधार पर मजबूत होनी चाहिए। उसका ट्रैक रिकॉर्ड अच्छा होना चाहिए। वह किस उद्योग में है, इसका पूरा खाका आपके दिमाग में स्पष्ट होना चाहिए। आपको पता होना चाहिए कि इस उद्योग और उस कंपनी में क्या भावी संभावनाएं निहित हैं।
आप जानकारी के तमाम स्रोतों का इस्तेमाल कर सकते हैं। एनएसई व बीएसई लेकर तमाम ब्रोकरों की बेवसाइट और बिजनेस चैनल तक का सहारा आपको लेना चाहिए। लेकिन निवेश का निर्णय आपको ठोंक बजाकर या ड्यू डिलिजेंस के बाद ही करना चाहिए। दिक्कत यह है कि कोई भी टिप न तो पूरी तरह निष्पक्ष होती है और न ही उसके एकदम सही होने का दावा करना वैज्ञानिक है क्योंकि शेयर का भावी भाव जितने प्रत्याशित-अप्रत्याशित कारकों से प्रभावित हो सकता है, उन सभी के प्रभावों की गणना करना संभव नहीं है।
हम आपको अर्थकाम पर जो भी सलाह देते हैं, वह मूलतः आपकी जानकारी बढ़ाने के लिए होती है। हम नई-नई कंपनियों से आपका परिचय कराते हैं। इसे बस यहीं तक सीमित रखा जाना चाहिए।
आप आंख मूंदकर न तो हमारे कहने पर निवेश करें और न ही किसी और के कहने पर। आखिरकार पैसा आपका जा रहा है, फायदा नुकसान आपका ही होना है तो वित्तीय बाजार के सबसे जोखिम से भरे इस माध्यम में निवेश का फैसला आपको बहुत सोच-विचार के बाद ही लेना चाहिए। हमने अपनी भूमिका तो बस आपको शिक्षित करने तक सीमित रख रखी है। वह भी, हम खुद पहले सीखते हैं, फिर आपको बताते हैं। हां, इतनी बात जरूर हम कहेंगे कि सर जी कि आप शुरू में तय कर लो कि आपको ट्रेडर बनना है या इनवेस्टर। इसको लेकर कोई भ्रम नहीं होना चाहिए।
अनिल जी,
नमस्कार। लेख पढ़्कर बहुत ही अच्छा लगा। मैं इस बाजार के खिलाड़ियों को तीन भागों में बाँट कर अपने परिचितों को समझाया करता हूँ। स्पेक्यूलेटर, ट्रेडर या इंवेस्टर मानसिकता के लोगों को अपनी मानसिकता के अनुकूल ही व्यवहार करना चाहिए और अपने व्यवहार से होने वाले लाभ हानि के लिए तैयार रहना चाहिए। उदाहरण के लिए मैं बताता हूँ कि एक सब्जी बेचने वाला सब्जी के बाजार, सब्जी के सीजन, सब्जी की लाइफ, एरिया अनुसार ग्राहक की माँग का पूर्ण ज्ञान करके अपनी जीविका चलाता है। मुख्य रूप से सब्जी की लाइफ, ग्राहक की पसन्द और मात्रात्मक जानकारी के आधार पर आवश्यकता के अनुसार वह सुबह सुबह अपना ठेला लगा कर दिन भर माल बेचता है, शाम को सब कुछ निपटा कर अथवा मजबूरी में कुछ बच गया तो समेट कर घर जा कर आराम से सोता है। डे ट्रेडर्स को इतनी सतर्कता के आधार पर अपने निवेश का अनुपात चुनना चाहिए। अफवाहों पर यकीन करके माल उतना ही खरीदना चाहिए जितना एक सब्जी वाला अपने ठेले में धनिया, पोदीना रखता है। यह शाम तक खराब हो जाता है। लहसुन, प्याज की लाइफ ज्यादा है तो बोरी भर के अग्रिम भी खरीदा जा सकता है। बुकवेल्यू, पी ई रेश्यो, प्रबन्धकों के इतिहास का ज्ञान, बाजार में कम्पनी के उत्पाद की मांग आदि का ज्ञान करके अधिक निवेश लहसुन, प्याज की तरह करना चाहिए। डी हाइड्रेटेड करके बारह महीने रखी जा सकने वाली सब्जी का ज्ञान जिस प्रकार एक सब्जी ट्रेडर को है उसी प्रकार बिजनेस घराने, बुकवेल्यू, पी ई रेश्यो, प्रबन्धकों के इतिहास का ज्ञान, बाजार में कम्पनी के उत्पाद की मांग आदि का ज्ञान करके लोंग टर्म निवेश के लिए भी तैयार रहा जा सकता है। निवेशक प्राय: ऐसा ही व्यवहार करता है, अगर वह ऐसा नही करता है तो ट्रेडर है निवेशक कहाँ हुआ? स्पेक्यूलेटर तो वो लोग होते हैं जो जिन्दगी हर समय हाथ में लिए चलते हैं, अंग्रेजी के दो शब्द नोन कंसर्निंग व डिस्टेण्ट पीपुल का भारत की गुलामी और इसकी आजादी के इतिहास से क्या सम्बन्ध है यह तो मैं किसी अन्य समय चर्चा करूँगा पर ये दो शब्द जिन पर लागू होते हैं उनको स्पेक्यूलेटर कहते हैं, ये लोग हमेशा हाई रिस्क जोन में रहते हैं, पर इनकी बेवकूफी के आधार पर वे निवेशक कमा जाते हैं जिनके लिए धन का मौद्रिक मूल्य कोई मायने नही रखता। इन निवेशकों के बारे में कहा जाता है कि धरती की 85% से ज्यादा प्राकृतिक सम्पदा का भोग यही 15% लोग करते हैं, शेष 15 % सम्पदा से 85 % लोगों का जीवन यापन हो रहा है। ये लोग और स्पेक्यूलेटर मिल कर निवेशक व ट्रेडर दोनों का खून पीने की रणनीतियाँ बनाते रहते हैं। कॉमोडिटी मार्केट और बाजार की महँगाई को समझने वाले लोग इस रिश्ते को गहराई से समझते हैं। जहाँ मानवीय संवेदना जागनी शुरू होती है उन देशों में समय समय पर कॉमोडिटी मार्केट में सटोरियों को नकेल कस दी जाती है। नोन कंसर्निंग व डिस्टेण्ट पीपुल … दुर्भाग्य इस समाज का कि इन कुत्तों पर कोई काबू नही पा सकता।