टेक्नोक्रॉफ्ट: खोटा सिक्का जमीन पर

टेक्नोक्राफ्ट इंडस्ट्रीज। आईआईटी मुंबई के दो इंजीनियरों द्वारा 1972 में बनाई गई कंपनी। भारत सरकार से मान्यता प्राप्त 3-स्टार एक्सपोर्ट हाउस। 95 फीसदी आय निर्यात से। दुनिया भर में ड्रम क्लोजर की दूसरी सबसे बड़ी निर्माता। अमेरिका से लेकर जर्मनी व चीन तक विस्तार। शेयर का भाव 52 हफ्तों की तलहटी 45.45 रुपए पर। बंद हुआ 45.95 रुपए पर, जबकि बुक वैल्यू ही है 131.45 रुपए। कंपनी का ठीक पिछले बारह महीनों का ईपीएस (प्रति शेयर लाभ) 10.34 रुपए। यानी, शेयर ट्रेड हो रहा है मात्र 4.44 के पी/ई अनुपात पर। आप कहेंगे कि वाह-वाह, क्या बात है! यह तो निवेश के लिए बड़ा ही माफिक और जबरदस्त शेयर है।

लेकिन मेरा कहना है – नहीं। एकदम नहीं। इस कंपनी से दूर रहने में भी भलाई है। अगर इसका शेयर (बीएसई – 532804, एनएसई – TIIL) 52 हफ्तों की तलहटी पर पहुंचा है तो इसकी ठोस वजह है। कंपनी ने कल ही चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही के नतीजे घोषित किए हैं। यूं तो साल भर की तुलना में उसकी बिक्री 15.23 फीसदी बढ़कर 105.52 करोड़ रुपए से 121.59 करोड़ रुपए पर पहुंच गई है। लेकिन इस दौरान उसका 7.18 करोड़ रुपए का शुद्ध लाभ 7.32 करोड़ रुपए के शुद्ध घाटे में तब्दील हो गया है। इससे पहले वित्त वर्ष 2010-11 में उसने स्टैंड-एलोन रूप से 456.66 करोड़ रुपए की बिक्री पर 32.34 करोड़ रुपए का शुद्ध लाभ कमाया था।

उसके कल ही बीते वित्त वर्ष के लिए दस रुपए अंकित मूल्य के शेयर पर एक रुपए का लाभांश देने की सिफारिश की है। इससे पहले भी कंपनी 2007 से ही बराबर लाभांश देती रही है। असल में इस लाभांश का तीन चौथाई लाभ तो प्रवर्तकों को ही मिलता है क्योंकि उन्हीं के पास कंपनी की 31.53 करोड़ रुपए की इक्विटी का 74.97 फीसदी हिस्सा है। पब्लिक के पास कंपनी के मात्र 25.03 फीसदी शेयर हैं। इसमें भी एफआईआई के पास उसके 1.49 फीसदी और डीआईआई के पास 1.81 फीसदी शेयर हैं।

कंपनी के बारे में और जानने से पहले यह जान लें कि इसका आईपीओ जनवरी 2007 में आया था जिसके तहत उसके दस रुपए अंकित मूल्य के शेयर 105 रुपए पर जारी किए गए थे। इसके बाद यह शेयर ऊपर में 130 रुपए तक जा चुका है। लेकिन नीचे में यह 17.55 रुपए तक डुबकी भी लगा चुका है। अभी 45.95 रुपए पर है। क्या जिस कंपनी ने साढ़े चार साल में अपने शेयरधारकों का मूलधन घटाकर आधे से कम कर दिया हो, उसकी तरफ झांकना भी चाहिए?

असल में कंपनी का बिजनेस मॉडल ही समझ में नहीं आता। मुंबई की ‘लकदक’ कंपनी है। रजिस्टर्ड ऑफिस नरीमन प्वाइंट में है तो कॉरपोरेट ऑफिस अंधेरी में अपने टेक्नोक्राफ्ट हाउस में। ठाणे में उसकी फैक्टरी है। लेकिन एक तरफ वह ड्रम बंद करने के ढक्कन और वेल्डेड स्टील ट्यूब व स्कैफोल्डिंग बनाती है, दूसरी तरफ कॉटन यार्न भी। बीच में उसने टेक्नोसॉफ्ट इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजीज के नाम से इंजीनियरिंग सॉफ्टवेयर व डिजाइन सर्विस कंपनी भी शुरू कर ली। करीब बीस दिन पहले ब्रोकर फर्म मोतीलाल ओसवाल के हवाले खबर छपी कि टेक्नोक्राफ्ट इंडस्ट्रीज अपना कॉटन यार्न डिवीजन अलग कर रही है तो उसने फौरन लपककर इसका खंडन किया।

कंपनी ने भारत के बाहर हंगरी, पोलैंड, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, अमेरिका व चीन तक में अपनी सब्सिडियरी इकाइयां डाल रखी हैं। लेकिन ड्रम के ढक्कन, स्टील पाइप, कॉटन यार्न व सॉफ्टवेयर का यह मिक्स हो सकता है कि प्रवर्तकों का शगल हो और इसमें उनकी महारत हो। लेकिन निवेशकों को शायद यह मिक्स बहुत महंगा पड़ेगा। किसी अंधी गली में जान-बूझकर फंसने का क्या मतलब है? कुछ लोग कहेंगे कि इसका शेयर तो एकदम जमीन पर गिरा हुआ है तो मैं उनसे कहूंगा कि खोटा सिक्का जमीन पर भी गिरा हो तो उसे उठाकर करेंगे क्या!

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