नज़र का फेर
चीजें अपने-आप में बड़ी सरल होती हैं। नियमबद्ध तरीके से चलती हैं। बड़ी क्रमबद्धता होती है उनमें। लेकिन हमारी सोच और अहंकार के चलते वे उलझी हुई नज़र आती हैं। सही नज़रिया मिलते ही सारा उलझाव मिट जाता है।और भीऔर भी
चीजें अपने-आप में बड़ी सरल होती हैं। नियमबद्ध तरीके से चलती हैं। बड़ी क्रमबद्धता होती है उनमें। लेकिन हमारी सोच और अहंकार के चलते वे उलझी हुई नज़र आती हैं। सही नज़रिया मिलते ही सारा उलझाव मिट जाता है।और भीऔर भी
एक हम ही तुर्रमखां नहीं हैं यह काम करनेवाले। दूसरे भी बहुत-से हैं जो इसी वक्त यह काम बड़ी शिद्दत से कर रहे होंगे। यह सोच एक तो हमारा गुमान तोड़ती है। दूसरे अकेलेपन की घबराहट भी मिटा देती है।और भीऔर भी
हम धारणा पहले बना लेते हैं। फिर तथ्यों को उसमें फिट कर देते हैं। यह सोच अवैज्ञानिक है। हमें अपनी सोच को नए सिरे से ढालना होगा ताकि मान्यताओं के बजाय हम तथ्यों को तरजीह देना सीख सकें।और भीऔर भी
विचार अगर अस्पष्ट हैं, सोच अगर ठंडी है तो इसकी एकमात्र वजह यह है कि हमारी पक्षधरता साफ नहीं है। पहले तय करें कि आप किस खेमे में हैं। फिर देखिए कि आपके विचार कितने प्रखर हो जाते हैं।और भीऔर भी
सोचिए, आप किस-किस के प्रति कृतज्ञ हैं? मां-बाप, गुरु, भाई-बंधु, पति/पत्नी! किसी के प्रति नहीं!! हर किसी ने आपका अहित किया है? अगर वाकई आपकी यही सोच है तो आपकी सोच में भारी खोट है।और भीऔर भी
जो लोग सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं, वे नौकरी करते हैं। जो लोग सिर्फ समाज के बारे में सोचते हैं, वे होलटाइमरी करते हैं। जो लोग अपने साथ-साथ समाज के बारे में भी सोचते हैं, वे उद्यमी बनते हैं।और भीऔर भी
पैर वर्तमान में और नापते हैं भविष्य को! कैसे संभव है? हम बहकने लगते हैं कि ये होगा तो वो करेंगे, ऐसा होगा तो वैसा करेंगे; जबकि तैयारी यह होनी चाहिए कि ये हुआ तो क्या करेंगे, वो हुआ तो क्या करेंगे।और भीऔर भी
औरों की भलाई में ही अपना भला है या अपने हित में ही सबका हित है? दोनों ही सोच अपने विलोम में बदल जाती हैं। इसका सबूत पहले समाजवाद के पतन और अब अमेरिका व यूरोप के संकट ने पेश कर दिया है।और भीऔर भी
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