हम ज्यादातर अपनी निष्क्रियता और दूसरे के कर्मों का फल भोगते हैं। जिस दिन से हम सोच-समझकर कायदे से अपने कर्मों पर उतर आते हैं, उसी दिन से सफलता की हमारी यात्रा शुरू हो जाती है। ऊंच-नीच जरूर आती है, लेकिन मंजिल मिलकर रहती है।और भीऔर भी

जटिलता से क्या भागना! सरलता की मंजिल तो जटिलता से गुजरकर ही मिलती है। आंतरिक संरचनाएं जितनी जटिल होती जाती हैं, चीजें उतनी आसान हो जाती हैं। खुद-ब-खुद आसानी से खुलनेवाला कांच का दरवाजा अंदर से जटिल होता है।और भीऔर भी

पहले ही बाधाओं की सोचने लगे तो बाधाओं के इतने बुलबुले फूट पड़ेंगे कि चलना ही रुक जाएगा। आकस्मिकता का इंतजाम होना चाहिए। विफल हो गए तो क्या करेंगे, इसका भी आभास होना चाहिए। पर, मंजिल तो चलने से ही मिलेगी।और भीऔर भी

दुनिया जंगल है और उसकी सारी राहें पत्तों से ढंकी हैं। बड़े होते ही मां-बाप का हाथ छोड़ राह की तलाश में जुट जाते हैं। सच्चा गुरु मिला तो मिल जाती है मंजिल। नहीं तो ताज़िंदगी भटकते रह जाते है।और भीऔर भी

अगर हम जानते हैं कि हमें कहां जाना है और हम यह भी जानते हैं कि वहां पहुंचने के लिए क्या करना जरूरी है तो समझ लीजिए कि यात्रा शुरू हो गई और आधी मंजिल मिल गई। अब बस पहुंचना ही बाकी है।और भीऔर भी

आदर्श हालात या आदर्श अवसर जैसी कोई चीज व्यवहार में नहीं होती। जो इसकी बाट जोहते हैं, वे मंजिल तक पहुंचना तो दूर, चल ही नहीं पाते। इसलिए थोड़ा कम की आदत डाल लेना ही सही है।और भीऔर भी

अधूरी ख्वाहिशों की कचोट हमेशा सालती है तब तक, जब तक मंजिल नहीं मिलती। भावनाएं जोर मारती हैं। कुर्बान हो जाने को दिल करता है। इसलिए कि दोस्त! सरकार तो बन गई, मगर देश अभी बाकी है।और भीऔर भी

बड़ी-बड़ी मंजिलों के चक्कर में क्यों पड़ते हैं? अरे! छोटी-छोटी मंजिल बनाएं और वहां तक चलने का मजा लें। बहुत सारे झंझटों और तनावों से मुक्त रहेंगे। साथ ही नई-नई मंजिलें भी फोकट में मिलती रहेंगी।और भीऔर भी

आशा और विश्वास के बिना किसी मंजिल पर नहीं पहुंचा सकता। आशा और विश्वास पूरी यात्रा के दौरान न केवल संतुलन बनाए रखते हैं, बल्कि वे प्रेरणा देते हैं, शक्ति देते हैं और देते हैं – सहनशीलता।और भीऔर भी