बेरहम ख्वाहिशें, शिकार बनते बिंदास

सामाजिक जीवन और प्रकृति में बिंदासपना चलता है। बल्कि सच कहा जाए तो जो रिस्क उठाते हैं, जीवन का असली आनंद वही लोग उठा पाते हैं। महाभारत में कृष्ण यही तो मनोभूति बना रहे होते हैं, जब वे अर्जुन से कहते हैं कि युद्ध में जीत गए तो धरती के सुखों का भोग करोगे और वीरगति को प्राप्त हो गए तो स्वर्ग का आनंद लूटोगे। लेकिन यह मानसिकता शेयर बाजार में नहीं चलती। यहां भावना में आंख मूदकर नहीं, बल्कि पूरी बुद्धि व समझदारी से आंख खोलकर रिस्क उठाना पड़ता है। नहीं तो वही किस्सा होता है कि मेरे पिताजी बड़े बहादुर थे। कैसे? शेर से लड़ गए। फिर? फिर क्या! शेर उन्हें खा गया।

यह शेयर आपको खा न जाए, इसलिए यहां निवेश करने से पहले मुख्य रूप से अपरिहार्य जोखिमों को समझना ही नहीं, गांठ बांध लेना जरूरी है। अगर आप म्यूचुअल फंड के जरिए निवेश करते हैं तो एक निश्चित फीस के बदले आप अपने धन को लगाने का काम फंड मैनेजर को सौंप देते हैं। फंड मैनेजर पढ़ा-लिखा और वित्तीय व बाजार के दांव-पेंच को समझता है। इसलिए सही फंड स्कीम को चुनने के बाद आपका रोल खत्म हो जाता है। लेकिन जब आप सीधे खुद इक्विटी या शेयर बाजार में निवेश करते हैं तो उस स्टॉक से लेकर बाजार व अर्थव्यवस्था तक के जोखिम आपको घेरकर कांव-कांव करने लगते हैं।

यूं तो इक्विटी में निवेश के जोखिम बहुत सारे हैं, लेकिन मोटे तौर पर उन्हें तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। पहला है बिजनेस का रिस्क। हर कंपनी किसी न किसी धंधे में होती है और हर धंधे में जोखिम होता है। आप अगर उस कंपनी के शेयर में निवेश करते हैं तो उसके सारे धंधे का जोखिम आप ओढ़ रहे होते हैं। इसलिए उस सेक्टर को काफी हद तक आपको समझने की कोशिश करनी चाहिए। उससे जुड़ी सरकारी नीतियों व माहौल को समझना चाहिए। अगर ब्याज दरें बढ़ती जा रही है, रिहायशी फ्लैट या कमर्शियल प्रोजेक्ट बिक नहीं रहे हैं और आगे दो-चार साल तक हालात सुधरने के संकेत नहीं हैं तो आप किसी रीयल एस्टेट कंपनी में निवेश करके कैसे फायदा कमा सकते हैं?

इसी तरह तमाम जिंस चक्र में चलते हैं। जिसका असर उनसे जुड़ी कंपनियों में होता है। टाटा स्टील और ग्रासिम जैसे शेयर कभी आसमान पर होते हैं तो कभी जमीन पर। जेएसडब्ल्यू स्टील के पास अपनी कोई लौह अयस्क खदान नहीं थी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद स्टील का किंग कैसे भिखारी बना डोल रहा है, इसकी खबर आपने पढ़ी ही होगी। इसलिए निवेश से पहले कंपनी के धंधे के ऊंच-नीच को समझना जरूरी है। यह भी देखना जरूरी है कि उस धंधे में कंपनी की अपनी स्थिति क्या है? उसकी बाजार हिस्सेदारी क्या है? कहीं उसका प्रतिद्वंद्वी किसी दिन उसे दबोच न डाले? या कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने माहौल का फायदा उठाने के लिए इस धंधे की खाल ओढ़ ली है? यहीं पर कंपनी प्रबंधन और प्रवर्तकों का इतिहास-भूगोल व मनोविज्ञान जानना जरूरी हो जाता है। कैसे के एस ऑयल के रमेश चंद गर्ग ने सरसों वायदा के खेल में सारी कंपनी डुबो डाली!

दूसरा जोखिम यह है कि खुद कंपनी की माली हालत क्या है? उसके पास बराबर कैश-फ्लो आ रहा या नहीं? दूसरे शब्दों में कंपनी का वित्तीय लेखाजोखा क्या है। कितनी बिक्री, कितना लाभ? कितना कर्ज है उसके ऊपर? उसकी पूंजी संरचना क्या है? प्रवर्तकों ने खुद कितनी पूंजी लगा रखी है? कंपनी का ऋण-इक्विटी अनुपात क्या है? अगर किसी कंपनी ने बहुत ज्यादा ऋण ले रखा है तो इसका मतलब उसके धंधे को चोट लग सकती है। अगर उसका ऋण-इक्विटी अनुपात कम है, मान लीजिए एक से कम है तो इसका मतलब कि उसकी पूंजी संरचना ज्यादा दुरुस्त है। लेकिन मान लीजिए कि किसी कंपनी ने इक्विटी बढ़ा दी थी तो उसी अनुपात में उसकी प्रति शेयर आय कम हो जाएगी जिसका असर शेयर के मूल्य पर पड़ेगा। साथ ही हमें कंपनी विशेष की वित्तीय उपलब्धियों की तुलना उसी उद्योग की दूसरी कंपनियों से करनी चाहिए। तभी उस कंपनी की वित्तीय मजबूती या कमजोरी का सही चित्र बनता है।

तीसरा जोखिम है खुद इस बाजार का जोखिम। इसे कोई अदृश्य ताकत नहीं, बल्कि लोग चलाते हैं। ऑपरेटर हैं, एफआईआई है, प्रवर्तक हैं, घरेलू निवेशक संस्थाएं (डीआईआई) हैं। कोई उधार लेकर धन लगाता है तो कोई दूसरों की पूंजी इकट्ठा कर झोंकता है। सबका अपना जुगाड़ है, सब पर अपना दबाव है। कभी भेड़चाल चलती है तो कभी बेहद शातिराना किस्म की चालबाजी। यहां बेरहम ख्वाहिशों का जमावड़ा है जो औरों की परवाह नहीं करतीं, सिर्फ अपना हित देखती हैं। फिर, 2008 में लेहमान संकट के बाद कैसी अफरातफरी मची थी कि अच्छी-बुरी कंपनी का कोई भेद ही नहीं रहा। मार्च 2009 तक सारे तारे जमीं पर आ गए। यह भी होता है कि किसी स्टॉक को बाजार पूछता ही नहीं और किसी को सिर चढ़ा लेता है। किसी में खरीद-फरोख्त करनेवालों का तांता लगा रहता है और किसी की तरफ कोई देखता नहीं। लेकिन ध्यान रखें कि आप यहां किसी चाट की दुकान के ग्राहक नहीं है, जो भीड़ देखकर उसकी तरफ चले जाएं। यहां तो आपका दांव उस दुकान पर है। हो सकता है कि चाट वाले ने किसी करतब से भीड़ खींच रखी हो! इसलिए शेयर बाजार में निवेश करते हुए बाजार के पूरे स्वभाव और वहां कार्यरत शक्तियों के संतुलन को समझने की जरूरत है।

कहने का मतलब यही है कि शेयर बाजार में रिस्क है, लेकिन बहुत कैल्कुलेटेड। यहां के जोखिमों की गणना करके जो निवेश करते हैं, वहीं कामयाब होते हैं। बाकी लोगों का तो वही हाल है कि मुझे मारकर बेशरम खा गया। कैसे? देख-सुन लीजिए यह किस्सा….

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