ऑप्शंस के भाव में मांग-सप्लाई नहीं

ऑप्शंस के भाव कभी शेयरों की तरह नहीं चलते कि मांग सप्लाई से ज्यादा हुई तो बढ़ गए और मांग सप्लाई से कम हुई तो घट गए। ये तो महज छाया हैं कैश-सेगमेंट में शेयरों की चाल की। वह भी महीने भर या सप्ताह का चक्र है। जिस तरह दिख रहे चंद्रमा का आकार अमावस्या और पूर्णिमा के बीच बदलता रहता है, कुछ-कुछ वैसी ही गति ऑप्शंस भावों की होती है। हमें कैश-सेगमेंट में शेयरों और डेरिवेटिव्स में चल रहे ऑप्शंस के भावों के फर्क को कायदे से समझना होगा। मालूम कि एनएसई में निफ्टी और बैंक निफ्टी, दोनों में ही महीने की एक्सपायरी के अलावा साप्ताहिक एक्सपायरी वाले ऑप्शंस भी चलते हैं।

कुछ लोग ऑप्शंस के भावों की गति देखकर बड़े खुश होते हैं। मसलन, जब वे देखते हैं कि एक ही दिन में 30 अप्रैल की एक्सपायरी के डेरिवेटिव चक्र में 9000 स्ट्राइक मूल्य वाले निफ्टी पुट ऑप्शन का भाव 65 प्रतिशत बढ़ गया तो गदगद हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि एक दिन पहले इसी पुट ऑप्शन में 75 का एक लॉट कल 145 रुपए के भाव से खरीद लिया होता तो आज भाव 239.25 रुपए हो जाने पर बेचकर निकल लेते और उनके लगाए 10,875 रुपए लगभग 17,945 हो गए होते यानी सीधे-सीधे 7070 रुपए का लाभ। 70 रुपए ब्रोकरेज वगैरह में चले जाते। फिर भी 7000 रुपए का फायदा। महीने में 22 दिन का कुल फायदा 1.54 लाख रुपए का!! क्या ज़रूरत है नौकरी या बिजनेस करने की?

लेकिन यह हिसाब-किताब मुंगेरीलाल के हसीन सपनों से ज्यादा कुछ नहीं। हकीकत यह है कि जिस दिन आपने निफ्टी का ऑप्शन खरीद लिया, उस दिन उसका जो भाव या प्रीमियम आपने अदा किया, उसके बाद ऑप्शंस के भावों की घट-बढ़ से आपके सौदे पर कोई फर्क नहीं पड़ता। यह दाम तो साधारण बीमा के प्रीमियम की तरह साल या मीयाद बीतने पर खत्म ही हो जाएगा, भले ही आप बीमा का कोई लाभ लें या नहीं।

ऑप्शंस के भावों की रोज की घट-बढ़ से वो कमाता है जो ऑप्शंस बेचता है, आपकी तरह खरीदता नहीं। ध्यान रखें कि बाज़ार में हर कोई ऑप्शंस खरीद सकता है, लेकिन हर कोई ऑप्शंस बेच नहीं सकता। यह भी सच है कि ऑप्शंस बेचनेवाले अक्सर फायदे में रहते है क्योंकि दाम बढ़े या घटे, उन्हें कम से कम प्रीमियम तो जोड़कर मिल ही जाता है।

एक बात याद रख लें कि किसी ऑप्शन का अंतर्निहित या इन्ट्रिंजिक मूल्य ऑप्शन खरीदने या बेचनेवाले के लिए एकसमान होता है। अंतर्निहित मूल्य केवल आईटीएम या इन द मनी ऑप्शन में ही होता है। एटीएम या ओटीएम ऑप्शन में अंतर्निहित मूल्य शून्य हो जाता है। कॉल ऑप्शन में अंतर्निहित मूल्य उतना होता है, जितना स्पॉट या कैश सेगमेंट में उस आस्ति का मूल्य उसके ऑप्शन के मूल्य से ज्यादा होता है। कॉल ऑप्शन बेचनेवाले के लिए लाभ का फॉर्मूला होता है:

π = Premium या ऑप्शन का भाव – max [(Spot Price – Strike Price), 0]

= Premium या ऑप्शन का भाव – max [(Intrinsic Value), 0]

वहीं, कॉल ऑप्शन खरीदनेवाले के लिए लाभ का फॉर्मूला है:

π = max [(Spot Price – Strike Price), 0] – Premium या ऑप्शन का भाव

= max [(Intrinsic Value), 0] – Premium या ऑप्शन का भाव

दूसरी तरफ पुट ऑप्शन का अंतर्निहित या इन्ट्रिंजिक मूल्य उतना होता है, जितना स्पॉट या कैश सेगमेंट में उस आस्ति का मूल्य उसके ऑप्शन के स्ट्राइक मूल्य से कम होता है। यहां भी पुट ऑप्शन बेचने या खरीदने वाले के लिए अंतर्निहित मूल्य एकसमान होता है। पुट ऑप्शन के धारक के पास आस्ति को स्ट्राइक मूल्य पर बेचने का अधिकार होता है। इसलिए आस्ति का स्पॉट मूल्य स्ट्राइक मूल्य से कम होगा, तभी वह बाज़ार से कम भाव पर खरीदकर ज्यादा भाव यानी स्ट्राइक मूल्य पर बेच पाएगा। अन्यथा, वह घाटा उठाने के लिए तो अपने बेचने के अधिकार का इस्तेमाल नहीं करेगा।

पुट ऑप्शन बेचने या शॉर्ट सेल करनेवालों के लिए लाभ का फॉर्मूला होता है:

π = Premium – max [(Strike Price – Spot Price), 0]

= Premium – max [(Intrinsic Value), 0]

वहीं, पुट ऑप्शन खरीदनेवाले के लिए लाभ का फॉर्मूला है:

π = max [(Strike Price – Spot Price), 0] – Premium या ऑप्शन का भाव

= max [(Intrinsic Value), 0] – Premium या ऑप्शन का भाव

ऑप्शंस बेचनेवाले को ऑप्शंस सेलर के साथ ही ऑप्शंस राइटर भी कहते हैं। कॉल ऑप्शंस में जब भी एक्सपायरी के दिन निफ्टी का भाव ऑप्शंस के स्ट्राइक मूल्य से कम या बराबर होता है, उसका राइटर या सेलर हमेशा फायदा कमाता है। वहीं, पुट ऑप्शंस में निफ्टी का बंद भाव जब भी एक्सपायरी के दिन ऑप्शंस के स्ट्राइक मूल्य से कम होता है, उसका राइटर या सेलर हमेशा फायदा कमाता है। इन दोनों ही स्थितियों में सेलर या राइटर को ऑप्शन खरीदनेवालों द्वारा दिया गया प्रीमियम एकमुश्त मिल जाता है।

वैसे, ऑप्शंस के भाव तय करने का तरीका ही कुछ ऐसा है कि इसमें ज्यादातर बेचनेवाले को ही फायदा होता है। अनुमान है कि दस में से केवल दो मामलों में बेचनेवाले को घाटा होता है, जबकि आठ मामलों में वे खरीदनेवालों के प्रीमियम पर मौज करते हैं। आगे हम इसी मसले को थोड़ा और गहराई से समझने की कोशिश करेंगे।

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