मान्यता है कि शेयर बाजार लंबे समय में फायदा ही देता है। लेकिन यह कोई निरपेक्ष सच नहीं है। इसकी सच्चाई का फैसला ‘कहां और कैसे’ से तय होता है। मसलन, जापान का निक्केई सूचकांक बीस साल पहले अक्टूबर 1992 में 16767 अंक पर था। अगस्त 1993 में 21,027 और जून 2006 में 22,757 तक चला गया। लेकिन फिर गिरने का सिलसिला शुरू हुआ तो अभी अक्टूबर 2012 में 8596 अंक पर आ चुका है। बीस साल का लांग टर्म बहुत काफी होता है। लेकिन इस दौरान नेक्कई सूचकांक में निवेश करनेवालों की रकम लगभग आधी हो चुकी है। जापान में यूं तो ब्याज की वर्तमान दर शून्य है। लेकिन 1972 से 2012 तक के पचास सालों में वहां की औसत ब्याज दर 3.3 फीसदी रही है। अगर हम इसे दो फीसदी भी मानें तो महज इसके असर को खत्म करने के लिए निक्केई सूचकांक को आज 24,915 अंक पर होना चाहिए, जबकि यह हकीकत में 8596 अंक पर है। इस तरह धन से समय मूल्य को ध्यान में रखें तो जापानी शेयर बाजार में निवेशकों की पूंजी बीस सालों में बढ़ने के बजाय घटकर लगभग एक तिहाई रह गई है।
अपने यहां की भी बात करें तो पिछले पांच सालों में बीसई सेंसेक्स सीधे-सीधे 8 फीसदी से ज्यादा गिर चुका है। अक्टूबर 2007 में यह ऊपर में 20,238 तक चला गया था, जबकि अभी चालू महीने में यह नीचे 18,614 तक जा चुका है। अपने यहां मुद्रास्फीति की औसत दर दस फीसदी से कम नहीं रही। इसलिए धन के समय मूल्य (Time Value of Money) के असर को देखें तो सेंसेक्स 42.89 फीसदी का नुकसान कर चुका है। 2002 से 2012 के दस सालों की बात करें तो सेंसेक्स जरूर करीब छह गुना हो गया है। अक्टूबर 2002 में यह 2949 अंक पर था, जबकि अभी 18,614 पर। यह सीधे-सीधे बढ़त 531 फीसदी की है। हालांकि, धन के समय मूल्य को देखें तो यह बढ़त काफी घटकर 59 फीसदी पर आ जाती है।
कहने का सार यह है कि बढ़ती अर्थव्यवस्था में लबे समय के दौरान शेयर बाजार बढ़ते हैं, जबकि घटती अर्थव्यवस्था में वे गिरते ही गिरते चले जाते हैं। भारत में शेयर बाजार को लंबे समय में बढ़ना है, जिसकी वजह यह है कि हमारी अर्थव्यवस्था अभी तक पूरी तरह विकसित नहीं हुई है। इसमें अपार संभावनाएं हैं। आम भारतीयों में छिपी उद्यमशीलता का एक सबूत इनफोसिस पेश चुकी है। ऐसे लाखों नहीं तो हजारों उद्यमशीलता के अंकुर कहीं न कहीं हमारे यहां फूट रहे हैं। माकूल माहौल न मिलने से उनका विकास नहीं हो पाता। विश्व बैंक की ताजा विश्व विकास रिपोर्ट के मुताबिक जहां अमेरिका में कोई कंपनी अगर 35 साल तक टिकी रहे तो उसकी उत्पादकता और कर्मचारियों की संख्या दस गुनी हो जाती है, वहीं भारत में इतने समय टिकने पर उत्पादकता केवल दोगुनी होती है और कर्मचारियों की संख्या बढ़ने के बजाय घट जाती है।
श्रम-विरल अमेरिका और श्रम-सघन भारत की यह तुलना हमारी सरकार की नीतियों की कलई खोल देती है। लेकिन अपने यहां सरकार के करने से कुछ नहीं होता। बल्कि, जहां उसके हाथ नहीं पहुंचते, विकास के कल्ले वहीं से फूटते हैं। अस्सी के दशक में चूंकि सूचना प्रौद्योगिकी पर सरकार का ध्यान नहीं था। इसीलिए इनफोसिस जैसी कंपनियों का उदय और विकास हो गया। सरकार के पैर वहां पड़ गए होते तो यकीन मानिए कि बंटाधार हो गया होता। लंबे समय में भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास आम भारतीयों में छिपी उद्यमशीलता के दम पर होगा, न कि सरकार की उदार-अनुदार नीतियों से। उद्यमशीलता का यह ज़ोर सरकार समेत किसी भी रोड़े को ठोकर मारकर अपने रास्ते से हटा सकता है।
यही सच्चाई यह भरोसा दिलाती है कि भारतीय शेयर बाजार को लंबे समय में बढ़ना ही है। लेकिन फिलहाल हमें शेयर बाजार का सामूहिक प्रतिनिधित्व करनेवाले सूचकांकों और अलग-अलग कंपनियों को अलग से देखने का नीर-क्षीर विवेक विकसित करना होगा। इससे हम गिरते बाजार में भी अपने धन को अच्छी बढ़त दिला सकते हैं। हम इसी क्रम में अगले कुछ दिनों में यहां ऐसे संभावनामय स्टॉक्स/कंपनियों की पहचान के चार मंत्र आपको बताने जा रहे हैं। ये मंत्र हमने नहीं खोजे हैं। इन्हें पिछली एक सदी के दौरान सारी दुनिया ने मिलकर खोजा है। और, यकीनन मानिए कि मल्टीबैगर चुनने के ये मंत्र समयसिद्ध हैं।
अनिल जी, बहुत ही सुन्दर और ज्ञानवर्धक चिट्ठा लिखा है आपने। इस सराहनीय कार्य को जारी रखिये। आपसे अनुरोध है की Bitcoin के बारे में भी कुछ लिखें..!!