जहां भी देखो, हर तरफ, हर कोई नोट बनाने में लगा है। इसलिए कि धन है तो सब कुछ है। पद, प्रतिष्ठा, शानोशौकत। सुरक्षा, मन की शांति। जो चाहो, कर सकते हो। छुट्टियां मनाने कभी केरल पहुंच गए तो कभी स्विटजरलैंड। बच्चों को मन चाहा तो ऑक्सफोर्ड से पढ़ाया, नहीं तो हार्वर्ड से। धन की महिमा आज से नहीं, सदियों से है। करीब 2070 साल पहले 57-58 ईसा-पूर्व में हमारे भर्तहरि नीतिशतक तक में कहा गया था, “जिसके पास धन है वही पुरुष कुलीन है, वही पंडित है, वही विद्वान है और सुनने योग्य व गुणज्ञ है। वही वक्ता है और वही दर्शनीय है। तात्पर्य यह है कि सभी गुण स्वर्ण रूपी धन पर आश्रित हैं।”
अफसोस! सदियो बीत जाने के बाद भी हमारे गांवों में यही स्थिति बरकरार है। नोट से पद-प्रतिष्ठा व सम्मान ही नहीं, वोट तक खरीदे जाते हैं। चोरी-डकैती या किसी भी गलत आचरण व भ्रष्टाचार से धन आए, लोग ऐसे धनवान को सिर आंखों पर बैठाते हैं। उसके साथ उठने-बैठने का मौका मिल जाए तो अपने को धन्य समझते हैं। उसे शादी-ब्याह जैसे समारोहों में खास निमंत्रण भेजा जाता है। लेकिन शहरों में, खासकर शहरी मध्य वर्ग में यह हालत नहीं है। वह इस मानसिकता से मुक्त हो रहा है। मधु कोड़ा या ए राजा ने भले ही करोड़ों नहीं, अरबों कमा लिए हों, लेकिन लोग उन्हें हिकारत की निगाह से देखते हैं। वह दिन दूर नहीं, जब ऐसे लोगों के घर सीबीआई ही नहीं, आम पब्लिक तक के छापे पड़ने लग जाएं।
लेकिन उनको फिक्र करने की जरूरत नहीं जो ईमानदारी से धन कमाते और सही निवेश से उसको बढ़ाते हैं। हालांकि ईमानदारी और बेईमानी की कोई शाश्वत परिभाषा नहीं है। यह भी युग और काल सापेक्ष है। हर युग में सही तरीके से धन कमाने के सुपरिभाषित रास्ते होते हैं। जो इनको तोड़ता है, वह बेईमान और जो मानता है, वह ईमानदार। लेकिन कल को अगर सिगरेट व तंबाकू को ड्रग्स की श्रेणी में रख दिया गया तो आईटीसी जैसी कंपनियों की बड़ी कमाई भ्रष्टाचार की श्रेणी में आ जाएगी।
हमें एक मूल बात ध्यान में रखनी चाहिए कि धन का मतलब दौलत नहीं होता। धन तो दौलत की माप और लेनदेन का साधन भर है। यह धन नोटों की शक्ल में कहीं रुपए में दिखता है तो कहीं डॉलर, येन, पौंड या यूरो में। इस धरती पर असली दौलत है प्रकृति। ये जमीन, जंगल, नदियां, जीव-जंतु पेड़-पौधे और लोग। धन तो इन तक पहुंचने, इनसे रिश्ते जोड़ने का साधन भर है। लेकिन समय के साथ यह साधन से साध्य बन गया। हम छाया की माया में पड़ गए। हम यह नहीं देख पाते कि धन तो हमारे बुने हुए सामाजिक जाल का ही एक तरह का अमूर्तन है। तंत्र को बनाए बगैर हम उनके प्रतिफल नोट को सीधे लपक लेना चाहते हैं। नहीं समझते कि रिश्ते खत्म तो नोट खत्म।
साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि लगातार मुनाफा बढ़ाने की जुगत में लगे बैंकर व सीईओ भी दौलत नहीं पैदा करते। वे ज्यादा से ज्यादा उन मधुमक्खियों की तरह हैं जो फूलों से शहद को उठाकर अपने छत्ते में जमा करती हैं। असली दौलत का सृजन तो वैज्ञानिक करता है, डॉक्टर करता है, इंजीनियर करता है, कलाकार करता है। वो सॉफ्टवेयर प्रोफेनशल करता है जो अनसुलझी समस्याओं को सुलझाने के नए सूत्र पेश कर देता है। वह उपन्यासकार करता है जो हमारी बंद दीवारों में नई-नई खिड़कियां खोलता चला जाता है। असली दौलत तो वे माताएं पैदा करती हैं जो अपने बच्चों में संस्कार और नए जमाने से लड़ने का हुनर भरती हैं। अध्यापक से लेकर कामगार और किसान तक हर वो शख्स दौलत पैदा करता है जो कुछ न कुछ नया सृजन करता है। बाकी तो सब इस कोठी का धान उस कोठी में करने, ताश के पत्तों को फेटते जाने का खेल है।
काश! किसी दिन ऐसा हो जाए कि जो सृजन करे, वही धनवान बने। ऐसा हो जाए तो हर तरफ समृद्धि के साथ ही सुख व शांति भी आ जाएगी। लोग ऐन-केन प्रकरेण नोटों को खींचने में नहीं, बल्कि नया कुछ सृजन करने को प्रेरित होंगे। लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक तो धन को दौलत बनाने के वाजिब साधनों का ही सहारा लेना होता। शेयर बाजार ऐसा ही एक साधन है। आइए देखते हैं दो फुटकर बातें जो इस हफ्ते चर्चा के दौरान सामने आईं…
- बचत को लगाने का सबसे जोखिम भरा ठिकाना है शेयर बाजार तो वहां से सबसे ज्यादा रिटर्न भी मिलने की संभावना होती है। लेकिन धन डूबकर रसातल में भी जा सकता है। इसलिए कोई भी अपनी सारी बचत शेयर बाजार में नहीं लगाता। दो-तीन महीने की जरूरत भर का कैश अलग रखकर बाकी धन बैंक एफडी से लेकर सोना व प्रॉपर्टी जैसे अपेक्षाकृत सुरक्षित माध्यमों में भी लगाता है। लेकिन निवेश का एक और विकल्प है जिस पर आम निवेशकों का उतना ध्यान नहीं गया है। यह माध्यम है बांड। बांडों में भी सबसे सुरक्षित हैं सरकारी बांड। लेकिन इनमें उतना ब्याज नहीं मिलता तो उनकी तरफ पहले से धनवान लोग ही ज्यादा खिंचते हैं। बांडों में आम निवेशकों के लिए एक खास बांड हैं इंफ्रास्ट्रक्चर बांड।
- नहीं समझ में आता कि शेयर बाजार में यह किसके करमों की गति और कौन-सी होनी है जो सब कुछ अच्छा होते हुए भी किसी कंपनी के शेयर के साथ बुरा हो जाता है। सही संदर्भ के लिए पहले संत कबीर का पूरा पद, “करम टारे नाहिं टरी। मुनि वसिष्ठ से पण्डित ज्ञानी साधि के लगन धरी। सीता हरन मरन दसरथ को, वन में बिपत परी। कहं वह फन्द कहां वह पारिधि, कहं वह मिरग चरी। कोटि गाय नित पुन्य करत नृग गिरगिट जोनि परी। पाण्डव जिनके आप सारथी, तिन पर बिपति परी। कहत कबीर सुनो भई साधो होने होके रही।” क्या सचमुच अपने शेयर बाजार में सब कुछ इतना फिक्स है कि सारी गणनाएं यहां आकर फेल हो जाती हैं?