डेरिवेटिव्स में ऑप्शंस का सौदा सबसे ज्यादा लोकप्रिय है। इसमें भी सबसे ज्यादा चलनेवाले ऑप्शंस दो तरह के होते हैं। एक कॉल ऑप्शंस और दो पुट ऑप्शन। कॉल ऑप्शन उसके धारक को नियत तिथि पर किसी आस्ति को पूर्व निधारित भाव या स्ट्राइक प्राइस पर खरीदने का हक देता है, लेकिन खरीदना उसकी बाध्यता नहीं होती। वहीं, पुट ऑप्शन उसके धारक को नियत तिथि पर किसी आस्ति को पूर्व निधारित भाव या स्ट्राइक प्राइस पर बेचने का हक देता है, लेकिन बेचना उसकी बाध्यता नहीं होती। फ्यूचर्स में उसे खरीदना या बेचना ही पड़ता है और अंतर चुकाकर सौदा काटना पड़ता है, जबकि ऑप्शंस में ऐसी कोई बाध्यता नहीं होती।
दुनिया भर में दो तरीके के ऑप्शंस चलते हैं। एक है यूरोपीय ऑप्शंस और दूसरा है अमेरिकी ऑप्शंस। बता दें कि ऑप्शंस की ये दो श्रेणियां हैं जो कहीं भी चल सकती हैं और इनका वस्तुतः यूरोप या अमेरिका से कोई लेना-देना नही है। यूरोपीय ऑप्शंस को केवल सौदे को मैच्योरिटी या एक्सपायरी के दिन ही पूरा किया जा सकता है, जबकि अमेरिकी ऑप्शंस को मैच्योरिटी के दिन या उससे पहले कभी भी काटा जा सकता है।
मोटेतौर पर कॉल ऑप्शन में फायदा तब होता है जब संबंधित स्टॉक या इंडेक्स का भाव हमारे सौदे के स्ट्राइक प्राइस या भाव से बढ़ जाता है। मान लीजिए हमने निफ्टी में 8500 के स्ट्राइक प्राइस का कॉल ऑप्शन खरीद रखा है और इस महीने गुरुवार, 30 अप्रैल को निफ्टी 9500 पर बंद होता है तो हमें फायदा होगा। वहीं, अगर निफ्टी घटकर 8200 पर बंद हुआ तो हमें घाटा होगा। दूसरी तरफ हमने अगर निफ्टी में 8500 का पुट ऑप्शन खरीद रखा है तो निफ्टी एक्सपायरी के दिन 9500 पर बंद होता तो हमें घाटा होगा, जबकि 8200 पर बंद हुआ तो हमें फायदा होगा।
अब देखते हैं कि ऑप्शंस की ट्रेडिंग में आखिर क्या होता है? जब कोई ऑप्शंस खरीदता है तो वह बेचनेवाले को एक प्रीमियम देता है। ऑप्शंस धारक के पास अधिकार होता है कि वह संबंधित आस्ति को खरीदे या बेचे। अगर उसे फायदा हो रहा होगा, तभी वह ऑप्शंस में निहित अधिकार का इस्तेमाल करेगा, अन्यथा नहीं। इसलिए ऑप्शंस धारक को अधिकतम उतना ही नुकसान हो सकता है जितना उसे खरीदते वक्त प्रीमियम अदा किया है या बेचनेवाले को उसका दाम दिया है। फ्यूचर्स और ऑप्शंस का यह मूल फर्क है कि जहां फ्यूचर्स में फायदा सीमित और नुकसान असीमित है, वहीं ऑप्शंस में फायदा असीमित और घाटा सीमित है।
सवाल उठता है कि ऑप्शंस का मूल्य कैसे तय होता है? उससे क्या-क्या पहलू हैं? ऑप्शंस मूल्य के दो हिस्से होते हैं। पहला अंतर्निहित या इन्ट्रिंजिक मूल्य और दूसरा समय मूल्य। अंतर्निहित मूल्य वह है जो धारक को ऑप्शन का अधिकार अपनाने से आज मिल सकता है। उसका समय मूल्य ऑप्शंस पर मिलनेवाला अतिरिक्त प्रीमियम है। मान लीजिए कि किसी स्टॉक के 100 रुपए स्ट्राइक मूल्य का कॉल ऑप्शन अभी 5 रुपए पर ट्रेड हो रहा है और स्टॉक का भाव कैश सेगमेंट में 102 रुपए है तो ऑप्शंस का अंतर्निहित मूल्य 2 रुपए और समय मूल्य 3 रुपए का हुआ। अगला मसला यह है कि हमें ऑप्शंस से कमाई कैसे होती है?
पहले जान लें कि ऑप्शंस की तीन स्थितियां होती हैं – इन द मनी (आईटीएम), ऐट द मनी (एटीएम) और आउट ऑफ द मनी (ओटीएम)। कॉल ऑप्शंस को इन द मनी तब कहते हैं जब कैश सेगमेंट में संबंधित आस्ति का मूल्य उसके स्ट्राइक मूल्य से ज्यादा होता है। वहीं, पुट ऑप्शंस को इन द मनी तब कहते हैं जब उसका स्ट्राइक मूल्य कैश सेगमेंट में संबंधित आस्ति के मूल्य से ज्यादा होता है। कॉल या पुट दोनों ही ऑप्शंस को ऐट द मनी तब कहते हैं जब कैश सेगमेंट में संबंधित आस्ति का मूल्य उसके स्ट्राइक मूल्य के बराबर होता है। आउट ऑफ द मनी उन कॉल ऑप्शंस को कहा जाता है जिनसे जुड़ी आस्ति का कैश सेगमेंट में मूल्य उनके स्ट्राइक मूल्य से कम होता है। इसी तरह पुट ऑप्शंस को आउट ऑफ द मनी तब कहते हैं जब कैश सेगमेंट में उनसे संबंधित आस्ति का मूल्य उनके स्ट्राइक मूल्य से ज्यादा होता है।
ऑप्शंस सौदा करते वक्त आईटीएम, एटीएम और ओटीएम को व्यावहारिक रूप से समझना बहुत ज़रूरी है। इसलिए हम अगले लेख में इसे उदाहरण से समझने की कोशिश करेंगे। फिलहाल एक बात जान लें कि केवल आईटीएम ऑप्शंस में ही फायदा होता है, जबकि एटीएम व ओटीएम ऑप्शंस में ट्रेडर को अपना प्रीमियम गंवाना पड़ता है। वैसे यह भी कहा जाता है कि ऑप्शंस खरीदने से ज्यादा उसे बेचना मुनाफे का सौदा है। पूरा मामला काफी जटिल है। इसलिए इसे पूरे इतमिनान से समझना होगा और देखना होगा कि ऑप्शंस में मुनाफे का सारा गणित क्या है?