जूपिटर बायोसाइंसेज दवा उद्योग व बायोटेक्नोलॉजी से जुड़ी 1985 में बनी कंपनी है। बहुत कुछ नायाब बनाती है। लगातार बढ़ रही है। अधिग्रहण भी करती है। हाथ भी मिलाती है। 2006 में हैदराबाद की कंपनी का अधिग्रहण किया तो 2008 में स्विटजरलैंड की एक उत्पादन इकाई खरीद डाली। 2007 में रैनबैक्सी के साथ रणनीतिक गठजोड़ किया। इस मायने में भी यह बड़ी विचित्र कंपनी है कि इसकी 62.43 करोड़ रुपए की इक्विटी में प्रवर्तकों की हिस्सेदारी मात्र 4.62 फीसदी है। बाकी 95.38 फीसदी इक्विटी पब्लिक के पास है। और, पब्लिक में भी सचमुच पब्लिक के पास क्योंकि इसमें एफआईआई की हिस्सेदारी 0.01 फीसदी और डीआईआई की हिस्सेदारी 0.75 फीसदी है। इसके शेयरधारकों की संख्या 59,701 है। लेकिन ऐसा कोई नहीं है जिसके पास कंपनी की एक फीसदी से ज्यादा इक्विटी हो।
शायद यही वजह है कि उसका 10 रुपए अंकित मूल्य का शेयर (बीएसई – 524826, एनएसई – JUPITER) 22.15 रुपए पर पिटा पड़ा है। कल भी इसमें 4.74 फीसदी की गिरावट आई है। कंपनी ने अभी मार्च 2011 की तिमाही के नतीजे घोषित नहीं किए हैं। लेकिन दिसंबर 2011 तक की चार तिमाहियों को मिलाकर देखें तो उसका टीटीएम ईपीएस (प्रति शेयर मुनाफा) 6.16 रुपए है और इस आधार पर उसका शेयर महज 3.6 के पी/ई अनुपात पर ट्रेड हो रहा है। शेयर की बुक वैल्यू ही 59.32 रुपए है। कंपनी लगातार पांच सालों से प्रति शेयर कम से कम 2 रुपए (20 फीसदी) का लाभांश देती रही है। जाहिर-सी बात है कि बाजार इस गुरु को भाव नहीं दे रहा है। क्यों?
ऐसा भी नहीं है कि यह कोई ठंडा, मृतप्राय या इल्लिक्विड शेयर है। इसमें जमकर ट्रेडिंग होती है। कल बीएसई में बी ग्रुप में शामिल इस कंपनी के 2.18 लाख शेयरों की ट्रेडिंग हुई जिसमें से 41.39 फीसदी डिलीवरी के लिए थे। वहीं एनएसई में इसका वोल्यूम 4.19 लाख शेयरों का था जिसमें से 44.70 फीसदी डिलीवरी के लिए थे। कमाल की बात है कि इसका शेयर 14 सितंबर 2010 को 149 रुपए के शिखर पर था। फिर ऐसा क्या हुआ जो यह 11 फरवरी 2011 को 18.30 रुपए की तलहटी पर पहुंच गया?
सारी वजहें नहीं पता। लेकिन ऊपर से देखने पर पता चलता है कि सितंबर से दिसंबर 2010 के बीच प्रवर्तकों ने कंपनी में अपनी हिस्सेदारी 10.52 फीसदी से घटाकर 4.62 फीसदी कर ली। एफआईआई भी अपना निवेश 1.56 फीसदी से निकालकर 0.01 फीसदी पर ले आए। लेकिन इस बीच कंपनी का कामकाज अच्छा रहा है। सितंबर तिमाही में उसने 59.22 करोड़ रुपए की आय पर 10.35 करोड़ रुपए का शुद्ध लाभ कमाया था और उसका परिचालन लाभ मार्जिन (ओपीएम) 50.20 फीसदी था। दिसंबर तिमाही में उसकी आय 63.35 करोड़, शुद्ध लाभ 11.08 करोड़ और ओपीएम 50.27 फीसदी रहा। दिसंबर 2009 की तुलना में उसकी आय 29 फीसदी और शुद्ध लाभ 24 फीसदी ज्यादा था। 12 फरवरी को कंपनी के नतीजे आए। लेकिन एक दिन पहले 11 फरवरी को उसका शेयर खाई में गिर चुका था।
जरूर इसकी कोई न कोई वजह होगी जो मुझे ऊपर-ऊपर से दिख नहीं रही। आप लोगों में से किसी को पता हो तो जरूर बताएं। फिलहाल कंपनी अपनी अधिकृत पूंजी को 70 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 100 करोड़ रुपए कर चुकी है। प्रवर्तकों के पास अभी कुल 28.85 लाख शेयर हैं। उन्हें 12.50 लाख शेयरों और 67 लाख ओएफसीडब्ल्यू (ऑप्शनली फुली कनर्विटबल वारंट) प्रीफरेंशियल या वरीयता आधार पर जारी करने का फैसला 3 मार्च 2011 को कंपनी की ईजीएम (असामान्य आमसभा) में हो चुका है। साथ ही दिनेश कुमार सिंह को कंपनी के 19,68,750 शेयर वरीयता आधार पर दिए जाएंगे। बता दें कि दिनेश कुमार सिंह अभी तक न तो कंपनी के 15 प्रवर्तकों में शामिल हैं और न ही उसके निदेशक बोर्ड में।
इस तरह जूपिटर बायोसाइंसेज की कहानी में कई दिलचस्प झोल हैं जिनका पता लगाने की जरूरत है। फिलहाल इसमें अच्छी बढ़त की उम्मीद के साथ निवेश कर देना चाहिए क्योंकि यह अब तक बहुत गिर चुका है और बहुत सस्ता है। प्रवर्तकों और इक्विटी का जो भी खेल चले, कंपनी की नींव मजबूत है, वर्तमान अच्छा है और भविष्य संभावनामय है। मुझे तो यही लगता है कि जूपिटर का गुरु लाभ के घर में बैठा है। फायदा कराएगा।
चलते-चलते यूं ही मन में आया तो बता दूं कि शेयर बाजार पूंजी बाजार का हिस्सा है और पूंजी बाजार वित्तीय बाजार का। हम में से हर किसी को भविष्य के लिए बचाने की जरूरत पड़ती है। यह बचत समय के साथ ताल मिलाकर चलती व बढ़ती रही, इसका माध्यम है वित्तीय बाजार। लेकिन यह वित्तीय बाजार ही बेतरतीब और हवा-हवाई हो जाए, निहित स्वार्थों के हाथ का खिलौना बन जाए, आपसी अंतर्विरोधों का शिकार हो जाए तो हमें भविष्य के लिए बचाने का दूसरा रास्ता भी खोजना पड़ सकता है।