रोज़गार का बढ़ना और डेटा का करतब

करीब छह साल पहले सरकार की एक लीक हो गई आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) रिपोर्ट से जब पता चला कि देश में बेरोजगारी की दर 2017-18 में 45 सालों के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गई थी तो हर तरफ हंगामा मच गया। मोदी सरकार के इसका ज़ोरदार खंडन किया। लेकिन मई 2019 में उसी सरकार ने दोबारा सत्ता संभाली तो दस दिन में ही उसे पुष्टि करनी पड़ी कि लीक हो गई रिपोर्ट की बातें एकदम सच हैं। अब तीसरी बार मोदी सरकार बन जाने के करीब साल भर बाद ही उसके श्रम मंत्री मनसुख मांडविया ने 2017-18 को ही आधार बनाकर बड़े-बड़े दावे किए हैं। उनका कहना है कि 2017-18 के बाद से देश में बेरोज़गारी की दर घटी है, जबकि रोज़गार की दर और श्रमबल भागीदारी दर, दोनों में बराबर वृद्धि हुई है। रोज़गार की दर का मतलब है देश की कुल आबादी में कामगारों का अनुपात या डब्ल्यूपीआर। लेकिन मांडविया आंकड़ों की उस बाज़ीगरी या हेराफेरी से बाज नहीं आए जो मोदी सरकार के 11 सालों के शासन का ट्रेडमार्क बन गई है। सच है कि 2004-2014 के दौरान देश में रोज़गार के लगे लोगों की संख्या 47.15 करोड़ थी और यह 2014-24 के दौरान 64.33 करोड़ हो गई। लेकिन इन संख्याओं को अगर तब की आबादी के अनुपात या डब्ल्यूपीआर के फ्रेम में देखें तो सब कुछ दूध का दही हो जाता है। अब बुधवार की बुद्धि…

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