आसमां से ज़मीं या ज़मीं से आसमां!

अपनी ज़िंदगी हमें काफी कुछ समझ में आती है। उसकी आर्थिक स्थिति भी बखूबी समझ में आती है क्योंकि उसे हम अपनी ज़मीन, अपने धरातल पर खड़े होकर देखते हैं। पर, कोई देश की अर्थव्यवस्था की बात करे तो सब कुछ सिर के ऊपर से गुज़र जाता है क्योंकि हम उसे आसमां से देखते हैं। अगर हम उसे भी अपनी ज़मीन से खड़े होकर देखें तो शायद सब कुछ अपनी ज़िंदगी की तरह साफ-साफ दिखने लगेगा। यह भी दिखेगा कि अमेरिका, चीन, जापान व जर्मनी के बाद दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुके भारत की ज़मीनी हकीकत क्या है।

आइए, नए साल की शुरुआत में हम मन व बुद्धि की स्लेट से सारी पुरानी छवियां व धारणाएं साफ कर देश की समग्र अर्थव्यवस्था की सच्ची तस्वीर बनाने की कोशिश करें। याद रखें कि इस अर्थव्यवस्था में हर देशवासी का योगदान है, चाहे वो भिखारी हो, बेरोज़गार हो या करोड़पति। करीब तीन साल पहले इंडिकस एनालिटिक्स नाम की एक रिसर्च फर्म ने स्वतंत्र अध्ययन के बाद रिपोर्ट दी थी कि भारत के जीडीपी में शहरों की झुग्गियों में रहनेवालों का योगदान 7.5 प्रतिशत से ज्यादा है। वहीं, आईआईएम बैंगलोर में फाइनेंस व एकाउंटिंग के प्रोफेसर आर. वैद्यनाथन का अनुमान है कि भारतीय जीडीपी में कॉरपोरेट क्षेत्र का योगदान बमुश्किल 18 प्रतिशत है। कृषि का योगदान फिलहाल 14 प्रतिशत पर ठहरा हुआ है। सवाल उठता है कि इसके बाद बची 60 प्रतिशत से ज्यादा अर्थव्यवस्था किसकी है?

इसमें हम-आप और हमारा सारा पास-पड़ोस आ जाता है। चाय, किराना, पान, हलवाई, नाई, मोची, रिक्शा वाला, सब्ज़ी वाला, फेरी वाला, दूध वाला, टैक्सी वाला, सड़क किनारे बैठा दिहाड़ी मजदूर, बढ़ई, प्लम्बर, दर्जी, मंदिर का महंत, मदरसे का मास्टर, मस्जिद का मौलवी और यहां तक कि पीएचडी करने के बाद टहल रहा बेरोज़गार। गली-मोहल्ले और गांवों तक में लगे छोटे-छोटे कल-कारखाने जिनमें पांच से कम मजदूर काम करते हैं। छोटे-छोटे दुकानदारों से लेकर ठेलों पर मूंगफली व आइसक्रीम और फुटपाथ पर चादर बिछाकर सामान बेचनेवाले। ऐसे तमाम हिंदुस्तानी भारतीय अर्थव्यवस्था में लगभग दो-तिहाई योगदान करते हैं।

राज्यों की राजधानियों से लेकर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली तक ये लोग हर तरफ फैले हैं। इसमें से ज्यादातर लोग स्वरोज़गार करते हैं। बहुत ही कम लोगों ने सरकारी महकमे में अपना रजिस्ट्रेशन करा रखा है। सरकार भी इनकी श्रेणी ‘नेति-नेति’ के अंदाज़ में बनाती है। वो कहती है कि जिन्होंने फैक्टरी एक्ट, खान व खनन एक्ट, कंपनी एक्ट, केंद्र व राज्यों के सेल्स टैक्स एक्ट और राज्य सरकारों के शॉप्स एंड इस्टैब्लिशमेंट एक्ट के अंतर्गत रजिस्ट्रेशन नहीं करा रखा है, वे सभी असंगठित क्षेत्र में आते हैं। देश में 93 प्रतिशत रोज़गार कृषि, स्वरोज़गार और असंगठित क्षेत्र में मिला हुआ है। बाकी 7 प्रतिशत रोज़गार ही सरकार और संगठित क्षेत्र ने दे रखा है। ये आंकड़े राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे संगठन (एनएसएसओ) के हैं।

खुद ही सोचिए कि क्या भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास का कोई सार्थक मॉडल इतने बड़े क्षेत्र को किनारे रखकर बनाया जा सकता है? क्या शेयर बाज़ारों में लिस्टेड पांच हज़ार कंपनियों और बाहर से ‘मेक-इन इंडिया’ करने के लिए बुलाई गई कंपनियों की बदौलत हमारी अर्थव्यवस्था अपनी पूरी सामर्थ्य और संभावना हासिल कर सकती है? लेकिन केंद्र से लेकर राज्य सरकारें विदेशी और बड़ी पूंजी के सम्मोहन में ऐसी फंसी हैं कि उन्हें एफडीआई ही दिखता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सबसे ज्यादा एफडीआई खींचने और विदेशी पूंजी के लिए देश को सबसे ज्यादा खोलने को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि बताने से नहीं थकते। असल में, पूरा देश आज़ादी के करीब सत्तर साल बाद भी औपनिवेशिक सोच से मुक्त नहीं हो पाया है। तभी तो कोई कंपनी शहद जैसी देशी चीज़ बेचने के लिए जर्मन प्रयोगशाला के प्रमाण का डंका बजाती है। हालांकि लेकिन कोई यह नहीं बताता कि पूरी जर्मन अर्थव्यवस्था छोटी-छोटी कंपनियों पर आधारित हैं और वहां की 99 प्रतिशत कंपनियां सूक्ष्म, लघु व मझौले आकार की हैं।

अपने यहां संगठित क्षेत्र में प्रॉपराइटरी व पार्टनरशिप फर्मों की बड़ी संख्या है। उन्हें मिला दें तो मैन्यूफैक्चरिंग से लेकर सेवा क्षेत्र में गैर-कॉरपोरेट क्षेत्र का योगदान कितना बड़ा है, इसकी साफ गिनती अभी तक दिल्ली में बैठी कोई भी सरकार नहीं कर सकी है। ऐसे में उससे किसी कारगर नीति की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? सरकार इस क्षेत्र की बचत को आम लोगों के साथ मिलाकर ‘हाउसहोल्ड’ की श्रेणी में रखती है। रिजर्व बैंक के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक, बैंकों में जमा कुल 98,41,290 करोड़ रुपए का 61.5 प्रतिशत हिस्सा हाउसहोल्ड सेक्टर का है, जबकि सरकारी क्षेत्र का हिस्सा 12.8 प्रतिशत और निजी कॉरपोरेट क्षेत्र का हिस्सा 10.8 प्रतिशत का है।

हर सरकार आम आदमी व छोटे कामधंधों से जुड़े इस क्षेत्र के लिए जुबानी जमाखर्च में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती। मगर, इस बार बड़ी-बड़ी बातों के बीच मोदी सरकार ने ऐसा कदम उठा लिया जिसने इस पूरे क्षेत्र को सुन्न कर दिया है। दरअसल, इस क्षेत्र को किसी सरकारी तार ने नहीं, बल्कि भारतीय रुपए के धागों ने आपस में जोड़ रखा है। ऐसे में नोटबंदी ने अचानक इनके रिश्तों की 86 प्रतिशत सिलाई उधेड़ दी। इसका सारा तानाबाना टूटकर बिखर गया। कितने मरे, कितने घायल, अभी इसकी गिनती होनी बाकी है।

सरकार को लगा कि यह अनौपचारिक क्षेत्र कमाता तो बहुत है, लेकिन टैक्स नहीं देता। मंत्रीगण कह रहे हैं कि 500-1000 रुपए के पुराने नोट बैंकों में जमा करवाकर सरकार ने इस क्षेत्र को अर्थव्यवस्था में जोड़ने का महान काम किया है। पर, हकीकत यह है कि भारतीय रुपए से आपस में गुंथा यह क्षेत्र पहले से ही अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग है। सच है कि वो पूरा टैक्स नहीं देता। मगर, वो अपने परिवार का भरण-पोषण करने के बाद पुलिस वाले को हफ्ता देता है, पार्टियों को चंदा देता है, नेताओं को कमीशन खिलाता है और अफसरों को रिश्वत देता है। जब उसे बैकों से ज़रूरत भर का ऋण नहीं मिलता और सरकार से डर व धौंस के सिवाय कुछ नहीं मिलता तो वो टैक्स क्यों दे। यह धंधे में अपने तरह की ईमानदारी पर टिके इस तबके की आवाज़ है। यह अलग बात है कि हमारी सरकार बेईमान बताकर उससे ‘कालाधन’ वसूलने पर आमादा है।

[यह लेख 2 जनवरी 2017 को प्रभात खबर के संपादकीय पेज़ पर छपा है]

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