सरकार से लेकर कॉरपोरेट जगत के चौतरफा दबाव के बावजूद रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति की पांचवी द्वि-मासिक समीक्षा में ब्याज दरों को जस का तस रहने दिया। नतीजतन, बैंक जिस ब्याज पर रिजर्व बैंक से उधार लेते हैं, वो रेपो दर 8 प्रतिशत और जिस ब्याज पर वे रिजर्व बैंक के पास अपना अतिरिक्त धन रखते हैं, वो रिवर्स रेपो दर 7 प्रतिशत पर जस की तस बनी रही।
रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुरान राजन ने मंगलवार को सुबह 11 बजे को मौद्रिक नीति समीक्षा पेश करते हुए कहा कि अगर अगले साल मुद्रास्फीति का दबाव फिर से नहीं बढ़ता और सरकार राजकोषीय घाटे पर काबू रख पाती है तो मौद्रिक नीति को ढीला करने या ब्याज दर घटाने के बारे में सोचा जा सकता है।
शेयर बाज़ार को ब्याज दर न घटने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ा। निफ्टी सीमित रेंज में ऊपर-नीचे हुआ। लेकिन तमाम अर्थशास्त्री और पारंपरिक मीडिया एक स्वर से माहौल बना रहे है जैसे रिजर्व बैंक ने ब्याज़ दर न घटाकर देश और अवाम के साथ कोई नकारात्मक हरकत की हो। हकीकत यह है कि यह सबसे ज्यादा ऋण लेनेवालों का प्रोपैगंडा का है जिसका भोंपू मूर्खता में या जान-बूझकर बजाया जा रहा है।
क्या आप जानते हैं कि भारत का सबसे बड़ा कर्जखोर कौन है और ब्याज दर घटने का सबसे ज्यादा लाभ किसे मिलता है? यह है भारत सरकार। केंद्र सरकार को चालू वित्त वर्ष 2014-15 में बाज़ार से कुल 6.47 लाख करोड़ रुपए का ऋण जुटाना है जो वह विभिन्न अवधि के सरकारी बांड और ट्रेजरी बिल जारी करके जुटाती है। 28 नवंबर 2014 तक सरकार बाज़ार से 5.602 लाख करोड़ रुपए का ऋण जुटा चुकी है। ब्याज दर घटती है तो उसका सबसे बड़ा फायदा सरकार को मिलता है।
केंद्रीय वित्त मंत्रालय का एक और दिलचस्प आंकड़ा आपको दे दूं कि भारत सरकार के ऊपर जून 2014 तक कुल 44,14,971.79 यानी 44.14 लाख करोड़ रुपए के ज्यादा का आंतरिक कर्ज था। वहीं, हमारा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) जुलाई-सितंबर 2014 की तिमाही में 14.39 लाख करोड़ रुपए था। इस तरह भारत सरकार पर देश के कुल जीडीपी का 3.07 गुना या 307 प्रतिशत कर्ज चढ़ा हुआ है, वो भी आंतरिक। इसमें बाहर से लिया गया ऋण शामिल नहीं है।
देश का दूसरा सबसे बड़ा कर्जखोर समुदाय है कॉरपोरेट क्षेत्र। इसको भी रिजर्व बैंक के ब्याज दर न घटाने से खासी तकलीफ होती है। देश की एक प्रमुख रेटिंग एजेंसी इंडिया रेटिंग्स एंड रिसर्च प्रा. लिमिटेड के ताजा आंकड़ों के अनुसार बीते वित्त वर्ष 2013-14 के अंत तक देश की शीर्ष 500 कंपनियों के ऊपर कुल 28.76 लाख करोड़ रुपए का कर्ज था। इन 500 में से 82 कंपनियां पुराने ब्याज पर कर्ज उतारने की स्थिति में नहीं हैं, वहीं 83 कंपनियां भी काफी ज्यादा दबाव में है। 500 कंपनियों के कुल कर्ज का 9 प्रतिशत हिस्सा इन्हीं 83 कंपनियों पर चढ़ा हुआ है। इन 83 कंपनियों में से ज्यादातर बमुश्किल इतना ही परिचालन लाभ कमा रही हैं जिससे ऋण की किश्त व ब्याज अदा की जा सके।
शायद अब आपको समझ में आ गया होगा कि ब्याज दर घटाने का हल्ला कौन और क्यों मचाता है। यह भी शुक्र मनाइए कि भारतीय रिजर्व बैंक भले ही वित्त मंत्रालय से पूरी तरह वैधानिक रूप से स्वतंत्र निकाय न हो, लेकिन वह मौद्रिक नीति तय करने में मोटे तौर पर स्वायत्तता बरतता है। अगर ऐसा न होता तो प्रणब मुखर्जी से लेकर पी चिदंबरम और अरुण जेटली अभी तक उसे न जाने कब गरीब की लुगाई बना चुके होते। हालांकि रिजर्व बैंक अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव सरकार के पास विचाराधीन है।