शेयर बाजार किसी इलाहाबाद का मीरगंज, दिल्ली का श्रद्धानंद मार्ग या मुंबई का कमाठीपुरा नहीं है कि गए और चोंच मारकर आ गए। यहां रिश्ते चंद रातों के नहीं, सालों-साल के बनते हैं। यहां के रिश्ते एकतरफा भी नहीं होते। दोनों पक्षों को भरपूर मिलता है। न मिले तो सब कुछ टूट जाता है, सारा औद्योगिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। यह करीब पांच सौ साल पहले उत्तरी यूरोप से शुरू हुआ वो जरिया है जिससे व्यक्तियों की दौलत कंपनियों की पूंजी का स्रोत बन जाती है और कंपनियों के विकास से निवेशकों की भी समृद्धि बढ़ती जाती है।
दो अहम काम हैं पूंजी बाजार के। एक, प्राइमरी बाजार के जरिए निवेशकों को उद्यमियों से मिला देना ताकि उद्यम के लिए वित्तीय संसाधन जुटाए जा सकें। दूसरा, सेकेंडरी या शेयर बाजार के रूप में निवेशकों को शेयरों की ट्रेडिंग का मंच उपलब्ध कराना ताकि वे जोखिम को एक जगह न जुटने दें और निवेश की गई कंपनियों के साथ जिंदगी भर बंधे रहने की मजबूरी से आजाद हो सकें। जुड़ना, लेकिन कभी भी मुक्त होने की आजादी के साथ। कंपनियों को आगे बढ़ने के लिए पूंजी और निवेशकों को बिना पेड़ लगाए उसका फल चखने की सुविधा। लेकिन धारणाएं समय व हकीकत से टकराकर क्या से क्या रूप धारण कर लेती हैं!! आज भारत ही नहीं, अमेरिका व यूरोप तक में पूंजी को अवाम से जोड़ने का यह ऐतिहासिक माध्यम सूखा पड़ा है। बहुत सारी विकृतियां इसमें समा गई हैं। पर, यह अपने आप में इतना नायाब अन्वेषण है कि इसका अंत कभी नहीं हो सकता। आइए, देखते हैं कि बीते पांच दिनों में हमने और क्या जाना-समझा।
- शेयर बाजार किसी दिन अगर 300-400 अंक गिर जाता है तो इससे भारत की विकासगाथा का अंत नहीं होता। इतिहास गवाह है कि बाजार इससे भी बहुत-बहुत बड़ी गिरावटों के बाद भी संभलकर शान से उठ खड़ा हुआ है। जो लोग बाजार में 15-20 साल से सक्रिय होंगे, उनको याद होगा कि 1995-97 के दो सालों में अभी जैसे ही हालात थे। मुद्रास्फीति ज्यादा थी। ब्याज दरें ऊंची थी। सरकार नीतिगत फैसलों में लुंजपुंज हुई पड़ी थी। उस दरम्यान सेंसेक्स बार-बार 2800 से 4400 के बीच उठता-गिरता रहा। एक कदम आगे, दो कदम पीछे। अच्छी खबर आई तो उठ गया। फिर कठोर हकीकत ने हड़काया तो जमीन पर आ गया। इस बार भी लगता है कि बाजार कुछ सालों तक एक रेंज में ही बंधा रहेगा।
- शेयरों के भाव आखिर किन चीजों से तय होते हैं? मजबूती अपनी जगह, नाम व तंत्र अपनी जगह, लेकिन कुछ और भी पहलू हैं जो भावों में रॉकेट या पलीता लगा सकते हैं। शेयर बाजार में निवेश जारी रखना है कि तो हर निवेशक को समझना पड़ेगा कि क्या-क्या कारक हैं जो बाजार में किसी स्टॉक के मूल्य का निर्धारण करते हैं। हम किसी दिन क्रमबद्ध रूप से यकीनन यह भी जान लेंगे।
- कंपनियों के शेयरों के भाव इस पर भी निर्भर करते हैं कि उसे चाहनेवाले कितने हैं। दिक्कत यह है कि हमारे यहां चाहनेवालों में निवेशक कम, ऑपरेटर ज्यादा हैं। लेकिन लंबे समय में ऑपरेटरों का करतब नहीं, कंपनी की असली ताकत ही चलती है। नहीं तो जिस पेंटामीडिया ग्राफिक्स को केतन पारेख ने फरवरी 2000 में 2275 रुपए तक उठा दिया था, वह आज 1.33 रुपए पर नहीं डोल रहा होता। इसलिए, ट्रेडिंग में सब चलता है, लेकिन लंबे समय का निवेश हमेशा मजबूत कंपनियों में ही करना चाहिए और वो भी पूरा ठोंक बजाकर देख लेने के बाद।
- खजाने से भरी गुफा में अलीबाबा को समझ में नहीं आ रहा कि कितना बटोरे, कितना ले जाएं। हर तरफ हीरे-जवाहरात की भरमार। लेकिन असली मुद्दा यही है कि क्या देश-दुनिया की अर्थव्यवस्था दुरुस्त रहेगी? कहीं यूरोप अपने साथ सबको डुबो ले गया तो! कहीं अमेरिकी अर्थव्यवस्था पटरी पर आते-आते धसक गई हो!! कहीं भारत की विकासगाथा को भ्रष्टाचार का दानव निगल गया तो!!! यही अतिवाद और निराशा बाजार में इस वक्त छाई हुई है। लेकिन यह सब हकीकत नहीं, महज मनोदशा है। कहीं से कयामत नहीं बरसने वाली। सच कहें तो निराशा में डूबने के बजाय दीर्घकालिक निवेशकों के लिए यह खुशियां बनाने का समय है क्योंकि उन्हें शानदार स्टॉक एकदम सस्ते में मिल रहे हैं, जिनको चुनकर वे निवेश का मजबूत किला बना सकते है।
- हर चमकनेवाली चीज सोना नहीं होती। है तो यह कहावत, लेकिन चमक के पीछे के सच को समझने में काफी मदद करती है।