।।राममनोहर लोहिया।।
हिंदुस्तान की भाषाएं अभी गरीब हैं। इसलिए मौजूदा दुनिया में जो कुछ तरक्की हुई, विद्या की, ज्ञान की और दूसरी बातों की, उनको अगर हासिल करना है तब एक धनी भाषा का सहारा लेना पड़ेगा। अंग्रेज़ी एक धनी भाषा भी है और साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय भाषा भी। चाहे दुर्भाग्य से ही क्यों न हो, वह अंग्रेज़ी हमको मिल गई तो उसे क्यों छोड़ दें।
ये विचार हमेशा अंग्रेज़ीवालों की तरफ से सुनने को मिलते हैं। इसमें एक के बाद एक सब गलत बातें गिनाने लगें तो तादाद काफी हो जाएगी। लेकिन पहले मैं थोड़ी देर के लिए यह मानकर चलता हूं कि तेलुगु, उर्दू, हिंदी ये गरीब भाषाएं हैं, इनमें शब्द काफी नहीं हैं। इनसे हमारे कानून, विज्ञान वगैरह का काम ठीक से नहीं चल सकता। तब उससे यह नतीजा निकलता है कि हम किसी और धनी भाषा का इस्तेमाल करें। तब तो बड़ा ही खतरनाक परिणाम होगा और हमारी भाषाएं तो सदा गरीब ही बनी रहेंगी।
जो लोग कहते हैं कि तेलुगु, हिंदी, उर्दू, मराठी गरीब भाषाएं हैं और आधुनिक दुनिया के लायक नहीं हैं, उनको तो इन भाषाओं के और अधिक इस्तेमाल की बात सोचनी चाहिए क्योंकि इस्तेमाल करते-करते ही भाषाएं धनी बनेंगी। जब मैं कभी इस तर्क को सुनता हूँ तो बहुत आश्चर्य होता है कि मामूली बुद्धि के लोग भी कैसे इस बात को कह सकते हैं कि अंग्रेज़ी का इस्तेमाल करो क्योंकि तुम्हारी भाषाएं गरीब हैं। अगर अंग्रेज़ी का इस्तेमाल करते रहेंगे तो हमारी अपनी भाषाएं कभी धनी बन ही नहीं पाएंगी।
जापान के सामने यह समस्या आई थी जो इस वक्त हिंदुस्तान के सामने है। 90-100 बरस पहले जापान की भाषा हमारी भाषा से कमज़ोर थी। 1850-60 के आसपास गोरे लोगों के साथ संपर्क में आने पर जापान के लोग बड़े घबड़ाए। उन्होंने अपने लड़के-लड़िकयों को यूरोप भेजा कि जाओ, पढ़ कर आओ, देख कर आओ कि कैसे ये इतने शक्तिशाली हो गए हैं। कोई विज्ञान पढ़ने गया, कोई दवाई पढ़ने गया, कोई इंजीनियरी पढ़ने गया और पांच-दस बरस में जब पढ़कर लौटे तो अपने देश में ही अस्पताल, कारखाने, कालेज खोले। जापानी लड़के जिस भाषा में पढ़कर आए थे उसी भाषा में काम करने लगे। जापानी सरकार के सामने यह सवाल आ गया। सरकार ने कहा, नहीं तुमको अपनी रिपोर्ट जापानी में लिखनी पड़ेगी।
उन लोगों ने कोशिश की और कहा कि नहीं, यह हमसे नहीं हो पाता क्योंकि जापानी में शब्द नहीं हैं, कैसे लिखें? तब जापानी सरकार ने लंबी बहस के बाद यह फैसला लिया कि तुमको अपनी सब रिपोर्टैं जापानी में ही लिखनी होंगी। अगर कहीं कोई शब्द जापानी भाषा में नहीं मिलता हो तो जिस भी भाषा में सीखकर आए हो उसी में लिख दो। घिसते-घिसते ठीक हो जाएगा। उन लोगों को मजबूरी में जापानी में लिखना पड़ा।
हिंदी या हिंदुस्तान की किसी भी अन्य भाषा के प्रश्न का संबंध केवल संकल्प से है। सार्वजनिक संकल्प हमेशा राजनैतिक हुआ करते हैं। अंग्रेज़ी हटे अथवा न हटे, हिंदी आए अथवा कब आए, यह प्रश्न विशुद्ध रूप से राजनैतिक संकल्प का है। इसका विश्लेषण या वस्तुनिष्ठ तर्क से कोई संबंध नहीं। यह केवल संकल्प का प्रश्न है। मोटे तौर पर हिंदुस्तान के उच्च वर्ग के लोग अंग्रेज़ी राज के ज़माने से एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। भारतीय क्रांति की सबसे बड़ी असफलता ठीक इसी में हैं। राजा या वाइसराय खत्म हो जाते हैं पर उच्च वर्ग बरकरार रहता है। यह सभी जानते हैं कि जनता की, विशेष रूप से निम्न मध्यम वर्ग और किसानों की, लंबी लड़ाई के द्वारा आज़ादी मिली; और उन्होंने भारतीय मामलों में हिंदी और अपने सूबाई मामलों में अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषाओं का इस्तेमाल किया। सन् 1919-20 में महात्मा गांधी ने यह परिवर्तन किया। यह कहना बहुत ही छलपूर्ण बात है कि अंग्रेज़ी भाषा ने देश को आज़ाद किया और ऐसा वे ही लोग कहते हैं जिन्होंने अंग्रेज़ी राज की गुलामी की या जब उन्होंने उसका प्रतिकार भी किया तो सन् 20 के पहले सहयोगवादी ढंग से ही किया।
लेकिन वे इतने चालाक थे कि उन्होंने अपने विशेषाधिकारों को, जिसमें भाषा भी है, आज़ादी के बाद भी कायम रखा। आज़ादी की लड़ाई की भाषाओं की जगह सामन्ती वर्चस्व की भाषा ने ले ली है। हमारे उच्च वर्ग के दिमाग को कोई एक हज़ार वर्षों से एक डर ने जकड़ लिया है। इस वर्ग के लोग या तो अपने ही लोगों से डरते हैं या फिर उन्हें हीन समझते हैं। इसलिए उनकी मनोवृत्ति संकुचित हो गई है। देश में एक व्यापक मनोवृत्ति की आवश्यकता है। अगर अपने पड़ोसियों के साथ बराबरी से रहना है तो हमें सभी दिशाओं में ज्ञान के भंडार का विस्तार करना होगा। लेकिन उच्च वर्ग के लोग ऐसे अनिश्चित विस्तार से डरते हैं, और राष्ट्रीय उत्पादन की दयनीय कमी में भी वे अपने तुच्छ भाग को कायम रखने या उसे बढ़ाने की ही चिंता में रहते हैं। मैं नहीं समझता कि सारा उच्च वर्ग इस संकुचित मनोवृत्ति से छुटकारा पा लेगा। पर उच्च वर्ग के युवकों या कम से कम उनके एक तबके को इसके खिलाफ उठना चाहिए।
सबसे बुरी बात तो यह है कि अंग्रेज़ी के कारण भारतीय जनता अपने को हीन समझती है। वह अंग्रेज़ी नहीं समझती। इसलिए सोचती है कि वह किसी भी सार्वजनिक काम के लायक नहीं है और मैदान छोड़ देती है। जनसाधारण द्वारा इस तरह मैदान छोड़ देने के कारण ही सामंती राज्य की बुनियाद पड़ी। लोकभाषा के बिना लोकराज्य असंभव है। कुछ लोग यह गलत सोचते हैं कि उनके बच्चे को अवसर मिलने पर वे भी अंग्रेज़ी में उच्च वर्ग जैसी ही योग्यता हासिल कर सकते हैं। सौ में एक की बात अलग है, पर यह असंभव है। उच्च वर्ग अपने घरों में अंग्रेज़ी का वातावरण बना सकते हैं और पीढ़ियों से बनाते भी आ रहे हैं। विदेशी भाषाओं के अध्ययन में जनता इन पुश्तैनी गुलामों का मुकाबला नहीं कर सकती।
बच्चा किसके साथ अच्छी तरह खेल सकता है, अपनी मां के साथ या पराई मां के साथ? हिंदुस्तानी आदमी तेलुगु, हिंदी, उर्दू, बंगाली, मराठी के साथ खेल सकता है। उनमें नये-नये ढांचे बना सकता है। उनमें जान डाल सकता है, रंग ला सकता है। बच्चा जितनी अच्छी तरह से अपनी मां के साथ खेल सकता है, दूसरे की मां के साथ उतनी अच्छी तरह से नहीं खेल सकता। यह यकीन मानिए कि जो हिंदुस्तानी अंग्रेज़ी लिखते और बोलते हैं, 2-4-10 को छोड़ दीजिए, वे कुछ भले बंदर हो सकते हैं, लेकिन बाकी तो भौंडे बंदर हैं, भद्दे बंदर हैं। उनको अंग्रेज़ी नहीं आती। मेरे मन में तो इतनी कुढ़न होती है जब उनको बोलते सुनता हूं कि अंग्रेज़ी धनी भाषा है इसिलए उसका इस्तेमाल करना चाहिए, उसी से काम चल पाएगा। तबीयत होती है कि उन भद्दे बंदरों को चांटा मारकर बतलाया जाए कि वे खुद कितनी अंग्रेज़ी जानते हैं, और कह रहे हैं अंग्रेज़ी धनी भाषा है।
भाषा एक रथ है। रथ का काम है बिना भेदभाव के सबको ढोए। मुझे यह कहने की ज़रूरत इसिलए पड़ रही है कि कुछ लोगों ने अंग्रेज़ी हटाओ को अंग्रेज़ियत हटाओ के अर्थ में पकड़ लिया है। अंग्रेज़ियत का मतलब नकलीपन अथवा कृत्रिमता है तो मुझे कोई आपित नहीं। लेकिन यदि इसका मतलब होता है औरतों का होठों पर लाली न लगाना, अथवा मर्द-औरत के नाच के बजाय भरतनाट्यम और कत्थक का ही चलते रहना, और तलाक का न होना, तब मुझे कहना पड़ता है कि भाषा रूपी रथ को दोनों वृत्तियों को समान रूप से वहन करना चाहिए। हिंदी में इतनी सामर्थ्य होनी चाहिए कि वह पवित्रता और छिनाली, दोनों के काम बराबर आ सके।
मैं कभी हिंदी और कभी हिंदुस्तानी का इस्तेमाल करता हूं, और उर्दू के बारे में भी मैं वही कहना चाहूंगा। ये तीनों एक ही भाषा की तीन विभिन्न शैलिया है। मुझे विश्वास है कि अगले बीस-तीस बरसों में ये एक हो जाएंगी। विशुद्धतावादियों ओर मेलवादियों को आपस में झगड़ने दो। लेकिन इन दोनो को ‘अंग्रेज़ी हटाओ’ आंदोलन का अंग बनना चाहिए। पर हमें सावधान रहना चाहिए कि अंग्रेज़ी कायम रखने की बड़ी साज़िश चल रही है और सभी तरह के झगड़े वही खड़े करती है। आंदोलन में इन तीनों शैलियों का स्वागत होना चाहिए क्योंकि भविष्य में इनके बीच कोई न कोई रास्ता ज़रूर निकलकर रहेगा। परंतु पुनरुत्थानवादी आभास अवश्य रहेगा, क्योंकि जो अंग्रेज़ी हटाना चाहते हैं उनमें से कुछ अपने अतीत की बातों से चिपटे रहनेवाले भी होंगे। हमें उनसे डरना नहीं चाहिए, क्योंकि वे खुद बहुत जल्दी ही महसूस करेंगे कि उनकी हिंदी या मराठी या तमिल को उदार और चटपटी होना चाहिए। भाषा रसिकता की भी उतनी ही वाहक हो जितनी कि सौम्यता की, सत्य के लिए उतनी ही सुश्लिष्ट जितनी कि चंद्रमा की यात्रा के लिए, ऐसी जिसका परिवेष्टन या विस्तार ज्यादा से ज्यादा व्यापक हो, जो वास्तविकता के साथ अपनी संपूर्ण उत्पत्ति में लावण्यमयी हो।
यह सच है कि हिंदी में आधुनिक ज्ञान प्रचुर मात्रा में उपलब्ध नहीं है, न हिंदी का रथ ऐसे ज्ञान के लायक बन पाया है। मेरा मतलब संभावनाओं से नहीं है, केवल वक्त की असिलयत से है। हिंदी में न जाने कितना पानी आकर मिला है। एक मानी में यह संसार की सर्वश्रेष्ठ भाषा है। इसका शब्द-भंडार संसार की किसी भी भाषा से ज्यादा है। लेकिन ये शब्द आधुनिक ज्ञान के लिए मंजे नहीं हैं। मांजने का कार्य बिला शक होना चाहिए। इसके लिए शब्दकोष रचे जाएं, अनुवाद किए जाएं और किताबें लिखी जाएं। यह सब काम होते रहना चाहिए।
हिंदी ऐसी हो कि उसमें सब तरह की बुद्धियां खिल सकें। भाषा सटीक हो, रंगीन हो, अलग-अलग मतलब को बता सके। यानी पारिभाषिक हो और ठेठ, तथा रोचक। संपन्न भाषा का और कोई मतलब नहीं होता। किसी भाषा में कितने विषय की कितनी किताबें हैं, यह एक गौण अथवा अलग संदर्भ का सवाल है। अगर हिंदी सभी विषयों के लिए सटीक और रंगीन बन जाए, तो पचास हज़ार, लाख किताबों के लिखने या अनुवाद करने में क्या देर लगेगी! जब लोग अंग्रेज़ी हटाने के संदर्भ में हिंदी किताबों की कमी की चर्चा करते हैं, तब हंसी और गुस्सा दोनों आते हैं, क्योंकि यह मूर्खता है या बदमाशी। अगर कॉलेज के अध्यापकों के लिए गरमी की छुट्टियों में एक पुस्तक का अनुवाद करना अनिवार्य कर दिया जाए तो मनचाही किताबें तीन महीनों में तैयार हो जाएंगी। हर हालत में कॉलेज के अध्यापकों की इतनी बड़ी फौज़ से, जो करीब एक लाख की होगी, कहा जा सकता है कि अनुवाद करो या बरखास्त हो जाओ।
इच्छाशक्ति नहीं है। संभावनाएं तो बहुत हैं।
[लोहिया जी (1910-1967) ने यह लेख करीब पचास साल पहले लिखा था। लेकिन हिंदी के हालात जस के तस हैं। इस लेख को मासिक पत्रिका भारत-संधान के जून 2012 अंक से साभार उठाया गया है जिसने इसे ओंकार शरद द्वारा संपादित और लोकभारती प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किताब समता और संपन्नता से लिया है]
Share market se sanyas le liye kya aapne?
Bhashaii kabhi garib nahi hoti . sabhi dharm aur jaati ke logo ki abhivyakti ke saadhan h .kam se kam apni ASLI MAA ke anchal mai to h n !!! koi bhi apni bhasha ko vikshit kar sakte h yedi ve ushe dinprtidin upyogi banata chale aur shabd aur laiii …ke mithas se poshit karta rahe . chhorna to kadapi nahi chahie . kyo chhorege apne maa ka dudh pina . asli takat to isi mai sab jante h .Angregi ko corporate bhasha kah sakte h . isko usi tarah se lena chahie jese ki filhaal hamere dwara banai gai TOP se jo mission nahi ho pa raha h to unki banai hui top ko kray..kharid kar sakte h pesa dekar .isme kya burai h . upyog lene ke liye yek dusre ki bhasha sikh sakte h . videshi bhi jab aai hamare yeha tab yedi aap corporate mai bethe h ..to thik h …english mai baatei kar lijie ..par jyuhi bharat ki dharti mai ve jab sherr sapata ke liye niklte h ….to start ho jaiye APNI BHASHA mai baat karne ke liye .chahe aapko english aati ho tab bhi.. jisse wo bhi apni kuchh bhash sikh ke aainge apne ghar se .kya apan nahi karte ha kya jab videsh jaane ka mauka milta h to kuchh sikh ke jate h ki nahi ? tabhi unko mahshush hoga ki nahi BHASHA sadhan h unche aur niche ka maapdand nahi .ve waha janam se h mulrup se uneh janm ke sath jo mila usi mai to ve ramann h . kya humlog kahe the kya HINDI mai sab kuchh karne lag jau nahi to tum low standard ke ho jaoge ? BHASHA ALAG ALAG JAGAHO KE MADHYA BHAWANA KA AADAN PRAADAN KA SAADHAN HI H . aur kuchh nahi…yesi h…to samjhie ki saamnewala sabhya nahi bulki yek kutil aadmi h . use inshan ka darja nahi diya ja sakta . kya kutilo se fayda nahi uthaya ja sakta ? Budhimaan bano aur term & condition baato ka istemaal kijie . tabhi line mai aainge nahi to kanha bethege wo aapko bhi nahi malum hoga us waqt .
हिन्दी सच्चे अर्थों में विश्वभाषा है पर देश के लोगों में अपनी भाषा के प्रति स्वाभिमान जागृत ना होने के कारण अंग्रेजी से आगे नहीं निकल पा रही है. जिस दिन भारत के १०% लोगों के मन में भी हिन्दी के प्रति सच्चा स्वाभिमान जाग गया, हिन्दी अंग्रेजी का सफाया कर देगी.
“यह सच है कि हिंदी में आधुनिक ज्ञान प्रचुर मात्रा में उपलब्ध नहीं है, न हिंदी का रथ ऐसे ज्ञान के लायक बन पाया है।”
मैं इस से सहमत नहीं हु। जहाँ तक मैं जनता हु हिंदी और संस्कृत सभी विज्ञानं की जनानी है…
और जाने…
http://www.youtube.com/watch?v=H5LWfXnoc6M