अगर हमने ऑप्शन के भाव निकालने का तरीका नहीं समझा तो हम 100 में से 88 बार हारते ही रहेंगे और अपना प्रीमियम गंवाते ही रहेंगे। दिक्कत यह है कि अगली बार जीत जाएंगे, इस भ्रम और भरोसे में रिटेल ट्रेडर हमेशा इंडेक्स ऑप्शन खरीदने में जुटे रहते हैं। अगर लगा कि बाज़ार बढ़ सकता है तो निफ्टी या बैंक निफ्टी का कॉल ऑप्शन खरीद लिया और गिरने की धारणा हो तो इनका पुट ऑप्शन खरीद लिया। बिना समझे कि सामने से ट्रेड करनेवाला शख्स, काउंटर-पार्टी शेयर बाज़ार ही नहीं, फाइनेंस के समूचे धंधे का घुटा हुआ खिलाड़ी है। उससे पार पाना असंभव नहीं तो बेहद मुश्किल ज़रूर है।
रिटेल ट्रेडर इंडेक्स ऑप्शन खरीदने के लिए इसलिए भी लालायित रहते हैं क्योंकि यह उनकी जेब और लालच की परिधि में समा सकता है। इंडेक्स फ्यूचर्स में वे ट्रेडिंग कर नहीं सकते। इंडेक्स ऑप्शंस भी वे बेच नहीं सकते क्योंकि दोनों में पांच-दस लाख का न्यूनतम मार्जिन चाहिए होता है। स्टॉक फ्यूचर्स में मार्जिन का झंझट बहुत तगड़ा है, जबकि स्टॉक ऑप्शंस में लिक्विडिटी नहीं है यानी उसमें खरीद-फरोख्त की उतनी तेज़ी नहीं है। ऐसे में डेरिवेटिव सेगमेंट में एक ही सौदा उनके लिए बचता है और वो है ऑप्शन खरीदना।
इंडेक्स ऑप्शन का एक फायदा और है कि इनका चक्र गुरुवार से गुरुवार तक यानी हफ्ते भर का भी है। महीने में एक पूरा चक्र तो बीते महीने के अंतिम गुरुवार से चालू महीने के अंतिम गुरुवार तक का होता ही है। ऊपर से तीन हफ्ते उनको इंडेक्स ऑप्शन के लिए और मिल जाते हैं। गौरतलब है कि हफ्ते भर के ऑप्शंस कॉन्ट्रैक्ट की सुविधा केवल इंडेक्स ऑप्शन में है, स्टॉक ऑप्शंस में नहीं। इसलिए भी रिटेल ट्रेडर इंडेक्स ऑप्शन की तरफ भागते हैं। अपनी इस मजबूरी को मुनाफे के मौके में बदलना है तो उन्हें यह समझ विकसित करनी ही पड़ेगी कि वे जिस भाव पर निश्चित स्ट्राइक मूल्य का ऑप्शन खरीद रहे हैं, वह भाव वाजिब है या नहीं। यही समझ हासिल करने में मदद करता है ब्लैक-शोल्स मॉडल।
ब्लैक-शोल्स मॉडल का फॉर्मूला आपने एक्सेल शीट पर डाउनलोड कर लिया हो तो फॉर्मूले को अलग से डेराइव करने की ज़रूरत नहीं है। फिर भी आपको लगे कि ऐसा कर लेना चाहिए तो जॉन सी. हल की किताब – Options, Futures and other Derivatives नेट से डाउनलोग कर लीजिए और उसे पढ़ते रहिए। लेकिन इन फॉर्मूले में भी वोलैटिलिटी एक ऐसा कारक है जिसमें एक्सचेंज पर मिले आंकड़े से काम नहीं चलेगा। दरअसल, सालाना या दैनिक वोलैटिलिटी आपके काम की नहीं है, बल्कि आपको इम्प्लाइड वोलैटिलिटी का आंकड़ा चाहिए जो अतीत नहीं, भविष्य के आकलन पर आधारित होता है।
हालांकि ब्लैक-शोल्स मॉडल से हम कॉल व पुट ऑप्शन का सैद्धांतिक या वाजिब मूल्य निकाल लें तो जानने की पहली सीढ़ी तो पूरी ही हो जाती है। उसके बाद इसी मॉडल से ऑप्शन गीक्स निकाले जाते हैं। इनसे पता चलता है कि उस ऑप्शंस से जुड़े डेल्टा, गामा, थीटा व वेगा मूल्य क्या हैं जिनसे ट्रेडर यह अंदाजा लगा सके कि ऑप्शन का सैद्धांतिक भाव मॉडल में शामिल कारकों के आंकड़ों में कुछ बदलाव करने के बाद कैसे और कितना बदल सकता है।
असल में ऑप्शन के भावों का सूत्र पकड़ना गहरी नदी के ऐसे घाट पर उतरते जाना है जहां एक के बाद एक सीढ़ियां मिलती जाती हैं और इनका कोई अंत ही नहीं नज़र आता। लेकिन हमारी कोशिश यही होगी कि हम वहां तक तो पहुंच ही जाएं जहां से आगे की गहराई की थाह लेने लायक बन जाएं। अभी के लिए एक सूत्र दिमाग में बैठा लीजिए कि अगर आप निफ्टी या बैक निफ्टी का कॉल ऑप्शन खरीद रहे हैं तो उसका स्ट्राइक मूल्य एक्सपायरी के दिन के अनुमानित इंडेक्स मूल्य के न तो बराबर होना चाहिए और न ही उससे ज्यादा। भले ही कॉल ऑप्शन इंडेक्स के बढ़ने की धारणा के साथ खरीदा हो, लेकिन उसका स्ट्राइक मूल्य अनुमानित (क्योंकि खरीदते वक्त तो अंतिम मूल्य नहीं पता हो सकता) मूल्य से कम रहना चाहिए। तभी आप खरीदने के अपने अधिकार का इस्तेमाल कर सकेंगे और बाज़ार के ज्यादा अंतिम मूल्य का अतर आपका मुनाफा बन जाएगा।
इसी तरह अगर आपकी धारणा बाज़ार के गिरने की है तो आप पुट ऑप्शन खरीदेंगे। लेकिन ध्यान रहे कि पुट ऑप्शन आपको बेचने का अधिकार देता है। इसलिए पुट ऑप्शन का स्ट्राइक मूल्य अगर एक्सपायरी के अनुमानित/अंतिम मूल्य से ज्यादा होगा, तभी निफ्टी या बैंक निफ्टी को बाज़ार मूल्य से ज्यादा भाव पर बेचकर आप मुनाफा कमा पाएंगे। याद रखें कि अगर आपका अनुमान एकदम सटीक बैठ गया और निफ्टी व बैंक निफ्टी एक्सपायरी के दिन वहीं पर बंद हुए जहां आपने सोचा था, तब आपका ऑप्शन ऐट द मनी या एटीएम हो जाएगा। इससे आपका मुनाफा ज़ीरो हो जाएगा और आपने जितना प्रीमियम दिया है, उतने का घाटा लग जाएगा। आपको वही ऑप्शन कमाकर देगा जो आईटीएम या इन द मनी होगा। बाकी अगर वह एटीएम या ओटीएम (आउट ऑफ द मनी) है तो आपका प्रीमियम खा जाएगा।
इसके बाद सवाल उठता है कि कॉल या पुट ऑप्शन के स्ट्राइक मूल्य की रेंज क्या होनी चाहिए? इसे इंडेक्स की वोलैटिलिटी या स्टैडर्ड डेविएशन और नॉर्मल डिस्ट्रीब्यूशन की मदद से निर्धारित किया जा सकता है। कैसे, इसे बाद में धीरे-धीरे समझेंगे। ऑप्शन के भावों को निर्धारित करने में हमने देखा कि ब्लैक-शोल्स मॉल के फॉर्मले (संबंधित एक्सेल शीट) में सालाना वोलैटिलिटी के बजाय इम्प्लायड वोलैटिलिटी ही बाज़ार में चल रहा भाव बता सकती है।
लेकिन इम्प्लाइड वोलैटिलिटी निकालने का अलग से कोई फॉर्मूला तो है नहीं क्योंकि वह ठोस आंकड़ों पर नहीं, बल्कि भविष्य को लेकर ट्रेडरों की धारणा पर आधारित होती है। इसलिए उसकी गणना हम उल्टे तरीके से करते हैं। ऑप्शन का बाज़ार भाव एक किनारे रख लेते हैं। अब फॉर्मूले में बाकी सारे कारकों का डेटा डाल देते हैं। फिर देखते हैं कि वोलैटिलिटी का कौन-सा आंकड़ा हमें बाज़ार भाव तक पहुंचाता है। वही हमारी इम्प्लायड वोलैटिलिटी होती है। बहुत से ट्रेडर तो ऑप्शन के भाव के बजाय इम्प्लायड वोलैटिलिटी को अहमियत देते हैं क्योंकि वह ज्यादा काम की होती है। समझ में नहीं आया! चिंता मत कीजिए। इसे हम बाद में उदाहरण से समझेंगे।