चुनावी लोकतंत्र की राजनीति में झूठ से सत्ता हासिल की जा सकती है क्योंकि जनता की याददाश्त लम्बी नहीं होती और भारत जैसे आस्था-प्रधान देश में लोगों को आसानी से भावनाओं में बहकाया जा सकता है। हालांकि यहां भी काठ की हांड़ी बार-बार नहीं चढ़ती। लेकिन अर्थनीति में झूठे दावे देश की आर्थिक बुनियाद को ही खोखला कर सकते हैं और सच उजागर होने पर सबसे तेज़ गति से बढ़ती हमारी अर्थव्यवस्था भी धराशाई हो सकती है। इस समय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्यों से लेकर सरकार के रहमोकरम पर पलते अर्थशास्त्री और तथाकथित बुद्धिजीवी जिस तरह झांझ-करताल लेकर मोदीराज का महिमागान कर रहे हैं, उसमें यह खतरा बहुत गहरा हो गया। अगर अर्थव्यवस्था में सब कुछ इतना ही अच्छा है तो देश के 81.35 करोड़ लोगों को हर महीने 5 किलो मुफ्त राशन देने की क्या ज़रूरत है? जीडीपी में मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का योगदान 14-15% पर क्यों अटका पड़ा है, जबकि इसे 2024-25 तक 25% तक पहुंचाने देने का संकल्प पेश किया गया था। आत्मनिर्भरता की तमाम घोषणाओं के बावजूद भारत अब भी दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश क्यों बना हुआ है? नाकामियों पर झूठ का मुलम्मा कब तक? अब शुक्रवार का अभ्यास…
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