देश के गृहमंत्री और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जोड़ीदार अमित शाह ने 8 दिसंबर को किसान नेताओं के साथ हुई बैठक में कहा था कि अगर सरकार सभी घोषित 23 फसलों को एमएसपी पर खरीदने लग जाए तो उसे हर साल 17 लाख करोड़ रुपए देने पड़ेंगे। अगर ऐसी बात है तो क्या एमएसपी केवल दिखाने के लिए है, देने के लिए नहीं। हाथी के दांत दिखाने के और, खाने के और? सवाल उठता है कि आखिर हमारे सिस्टम और देश के आंतरिक व्यापार संतुलन में ऐसी क्या लहक है कि किसान को उनके उत्पादन को न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं दिया जा सकता है (न सरकार ऐसा कर सकती है और न ही बाज़ार ऐसा कर रहा है) जबकि बाकी सारे उत्पादक बाज़ार से अपने माल का अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) पूरी ठसक से हासिल कर लेते हैं?
किसान को यह एमएसपी भी तब नहीं मिल रहा, जबकि वह सच्चा एमएसपी नहीं है। मौजूदा एमएसपी में किसान द्वारा लगाई गई कुल पूंजी व श्रम लागत के साथ परिवार के श्रम का मूल्य जोड़कर (A2 + FL) उसके ऊपर 50 प्रतिशत मार्जिन दिया जाता है, जबकि असली एमएसपी तय करते हुए स्वामीनाथन आयोग (नेशनल कमीशन ऑफ फार्मर्स) ने समग्र लागत (किसान द्वारा लगाई गई कुल पूंजी + श्रम लागत + परिवार के श्रम का मूल्य + प्रयुक्त भूमि का किराया + प्रयुक्त मशीनरी व लगाई गई पूंजी का ब्याज) के ऊपर 50 प्रतिशत मार्जिन देने की सिफारिश की थी। इसमें किसान की समग्र लागत (C2) वर्तमान लागत (A2 + FL) से 35-40 प्रतिशत ज्यादा होगी और तब एमएसपी मौजूदा एमएसपी से 45-50 प्रतिशत ज्यादा हो जाता।
भाजपा ने 2014 के चुनाव प्रचार में असली एमएसपी देने का वादा किया था। लेकिन वह सरकार बनाने के बाद नकली एमएमपी ही दे रही है। यह अलग बात है कि इसे ही वह असली बताती रही, जबकि सुप्रीम कोर्ट में लिखित हलफनामा दे चुकी है कि असली एमएसपी को लागू करना उसके लिए संभव नहीं है। क्यों नहीं है संभव? एम एस स्वामीनाथन जैसे विशेषज्ञ ने जब तीन सौ पन्नो से ज्यादा की अपनी रिपोर्ट में यह सिफारिश की थी तो सब कुछ देखभाल कर ही किया होगा। सरकार या तो स्वामीनाथन को बेवकूफ बता रही है या देश ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट तक बेवकूफ बना रही है। मोदी सरकार अपने आकाओं का स्वार्थ में इस कदर अंधी हो चुकी है कि उसे न तो देश का हित दिख रहा और न ही किसानों का।
लेकिन हम सभी देशवासियों को अपने किसानों की दुर्दशा समझने की ज़रूरत है। एक तो किसान एकमात्र ऐसा उत्पादक है जो अपने उत्पाद का मूल्य नहीं करता, दूसरे सरकार उसके नाम पर ऐसा मूल्य तय करती है जो सरकारी मंडियों के अलावा कहीं नहीं मिलता। हमेशा मंडियों से बाहर बाज़ार में फसलों का मूल्य एमएसपी से 25-30 प्रतिशत कम रहता है। मगर, उपभोक्ता उसी अनाज का फल-सब्ज़ी का कई गुना ज्यादा दाम अदा करता है, जितना मूल्य किसान को मिल पाता है। किसान को अपनी गोभी 2 रूपए किलो बेचनी पड़ती है, जबकि उपभोक्ता उसे 25-30 रुपए किलो में खरीदता है। उपभोक्ता का दिया गया 10-15 गुना दाम क्या बिचौलियों को ही मिलता है या इसके पीछे कोई खतरनाक गोरखधंधा चल रहा है। सवाल यह भी है कि क्या सारी दुनिया में किसानों के साथ यही हो रहा है या भारत में ही यह अनोखी रीत चल रही है?
करीब ढाई साल पहले जुलाई 2018 में भारत, अमेरिका, चीन व ब्रिटेन समेत दुनिया के 37 प्रमुख देशों के संगठन ओईसीडी (ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट) ने आईसीआरआईईआर (इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल रिलेशंस) के साथ मिलकर भारत की कृषि नीतियों पर एक विस्तृत अध्ययन रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसका मुख्य निष्कर्ष है कि 2000-01 से 2016-17 तक के सत्रह सालों में भारतीय किसानों को जितना दिया गया, उससे 14 प्रतिशत ज्यादा धन उनसे निचोड़ लिया गया। इसका साफ मतलब यह हुआ कि भारत सरकार भले ही किसानों पर कोई टैक्स न लगाए या उन्हें सिंचाई से लेकर बिजली और खाद पर हज़ारों करोड़ रुपए की सब्सिडी देने का ढिंढोरा पीटे, लेकिन सच्चाई यह है कि हमारी व्यापार नीति कृषि व किसानों का हित करने के बजाय उनका दोहन कर रही है। किसानों से सीधे नहीं, घुमाकर टैक्स लिया जा रहा है। यह टैक्स उस परोक्ष या अप्रत्यक्ष टैक्स से ऊपर है जो हर किसान परिवार अपनी खपत पर बाज़ार में चुकाकर सीधे सरकार की तिजोरी में डालता है।
ओईसीडी के मुताबिक, 2017-18 के मूल्य पर गिनती करें तो भारत का किसान सरकार की नीतियों के चलते हर साल 2.65 लाख करोड़ रुपए गंवाता रहा है। इस तरह साल 2000 से 2017 तक के सत्रह सालों मे भारतीय किसानों द्वारा गंवाई गई कुल रकम 45.05 लाख करोड़ रुपए बनती है। दुनिया के किसी भी देश ने अपने किसानों को इतना ज्यादा नहीं निचोड़ा है, जितना भारत ने। यह कितनी बड़ी लूट है? क्या आप कल्पना कर सकते हैं! सरकार हर साल किसानों पर लाखो करोड़ लुटाने का दावा करती रही। लेकिन हकीकत में उसने 17 सालों में चुपचाप किसानों से 45 लाख करोड़ रुपए लूट लिए। 17 सालों में हुई इस लूट में अटल बिहारी बाजपेई, मनमोहन सिंह और नरेंद्र दामोदरदास मोदी – तीनों की सरकारें शामिल रही है।
आप पूछ सकते हैं कि सरकार तो पीडीएस का राशन उपलब्ध कराने के लिए किसानों से उनका अनाज पूरा एमएसपी देकर खरीदती रही है। सरकारों ने किसानों ने लाखो करोड़ रुपए के कर्ज माफ किए हैं। कृषि व ग्रामीण विकास का बजट हर साल लाखों करोड़ रुपए का रहता। मसलन, चालू साल 2020-21 में इस मद में बजट के 2.83 लाख करोड़ रुपए डाले गए हैं। फिर वह किसानों की लूट कैसे कर सकती है? हाथी के दांत दिखाने के और, और खाने के और कैसे हो सकते हैं?
दरअसल, सरकारें जो काम एमएसपी जैसे सीधे कदमों से नहीं करती, उससे ज्यादा वो अपनी नीतियों से कर डालती हैं। ओईसीडी ने भारत सरकार के कृषि से जुड़े एमएसपी व आवश्यक वस्तु अधिनियम जैसे घरेलू मार्केटिंग रेग्युलेशन, खाद सब्सिडी जैसी बजट नीतियों के साथ ही न्यूनतम निर्यात मूल्य, निर्यात पर बैन और आयात शुल्क जैसी व्यापार नीतियों की गहरी पड़ताल की। इसके अलावा गरीबों के नाम पर पीडीएस के जरिए दी जा रही खाद्य सब्सिडी की भी तहकीकात की। इनके पूरे जटिल चक्रव्यूह के हर व्यूह को तोड़ने के बाद ही ओईसीडी इस नतीजे पर पहुचा कि भारत में किसानों से 17 सालों में 45 लाख करोड रुपए से ज्यादा लूटे गए हैं।
आइए, हम यह भी जान लें कि ओईसीडी इस नतीजे पर पहुंचा कैसे? ओईसीडी नीतियों से जुड़े दो सकेतकों के पैमाने पर पिछले तीस सालों से भी ज्यादा वक्त से दुनिया के 52 प्रमुख देशों को कसता रहा है। ये 52 देश दुनिया के कुल कृषि उत्पादन का तीन-चौथाई से ज्यादा पैदा करते हैं। इन देशों में भारत भी शामिल है। ओईसीडी के दो पैमाने हैं पीएसई और सीएसई। पीएसई माने प्रोड्यूसर सपोर्ट एस्टीमेट और सीएसई माने कज्यूमर सपोर्ट एस्टीमेट। पीएसई में मूलतः दो बातों को कैप्चर किया जाता है। एक यह कि किसान को वैश्विक मूल्य की तुलना में अपनी उपज का कितना दाम मिलता है और दूसरी यह कि किसानों को केंद्र व राज्य सरकारों से लागत सामग्रियों पर बजट आवंटन के जरिए कितनी सब्सिडी दी जाती है। इन दोनों को मिलाकर निकाला जाता है कि किसान को मिलनेवाला पीएसई उपभोक्ता द्वारा कृषि उत्पादों के लिए दिए गए कुल दाम की तुलना में धनात्मक रहा है या ऋणात्मक। पॉजिटिव या धनात्मक तो किसान को फायदा, निगेटिव या ऋणात्मक तो किसान को लूटा गया।
ओईसीडी ने पूरी तहकीकात के बाद पाया कि भारत का पीएसई साल 2000 से 2017 तक के 17 सालों में माइनस 14 प्रतिशत रहा है। जबकि ओईसीडी के 37 देशों का औसत पीएसई प्लस 18.2 प्रतिशत रहा है। प्रमुख देशों की बात करें तो इन्हीं सत्रह सालों में यूरोपीय संघ में पीएसई का आंकाड़ा प्लस 19.6 प्रतिशत, चीन में 14.9 प्रतिशत और अमेरिका में प्लस 9.5 प्रतिशत रहा है। यानी इन सभी देशों में किसानों को अपनी फसलों से फायदा मिला है, जबकि भारत में उसको सरकारी नीतियों के चक्रव्यूह में फंसाकर लूटा गया है।
आज देश का छोटा-बड़ा हर किसान अगर कहता है कि खेती घाटे का सौदा बन गई है तो वह अपनी सच्ची पीड़ा बयां कर रहा होता है। भारत के किसानों की यह पीड़ा किसी आसमानी प्रकोप नहीं, बल्कि सुल्तानी शैतानी का नतीजा है। ओईसीडी जैसे विश्व के नामी संगठन ने ढाई साल पहले ही सुल्तानी शैतानी पर मोहर लगा दी थी। उसने साफ-साफ बता दिया था कि भारत सरकार ने जो कृषि संबंधी व्यापार व मार्केटिंग नीतियां चला रखी हैं, उसी के चलते किसानों को उनकी मेहनत का वाजिब फल नहीं मिल पा रहा है। लेकिन मोदी सरकार की क्रूरता देखिए कि वह किसानों को उनका वाजिब हक दिलाने के बजाय जो मिल रहा है, उसे भी छीनने पर आमादा है।