पैसे का कोई पेड़ नहीं लगता कि गए और तोड़कर आ गए। यह किसी भी दौर के व्यापकतम सामाजिक अंतर्संबंधों में व्याप्त विनियम मूल्य का मूर्त स्वरूप है। यह सोमनाथ के ऐतिहासिक मंदिर में शिव की मूर्ति की तरह हवा में लटका हुआ दिख सकता है। लेकिन इसका पोर-पोर किसी न किसी ने दांतों से दबा रखा है। अंग्रेजी में कहावत है कि कहीं कोई फ्री लंच नहीं होता। इसलिए शेयर बाजार को पैसा बनाने का आसान साधन मानकर जीभ लपलपाते हुए चले आने का कोई मतलब नहीं है। यह कोई प्रेम का घर तो नहीं है कि सीस उतारे भू धरे, तब पैठे घर माहिं। लेकिन खाला का घर भी नहीं है कि दनदनाते हुए चले आए। कुछ बुनियादी बातें हैं जिन्हें अपने भीतर जमाकर ही यहां प्रवेश करना चाहिए।
इनमें से सबसे पहली बुनियादी बात। हममें से 99.99 फीसदी लोग किसी शेयर में निवेश करते हैं तो सिर्फ यही सोचते हैं कि इससे कितना कमा सकते हैं, इस पर कितना रिटर्न मिल सकता है। लेकिन कबीर की अजब उलटबांसी जैसी बात है कि शेयरों से वही कमाई कर पाता है जो यह भी सोचकर निवेश करता है कि हम यहां कितना गंवा सकते हैं। बेंजामिन ग्राहम से लेकर वॉरेन बफेट तक इस धारणा पर अमल करते रहे हैं कि रिटर्न के आकलन के साथ यह भी तौलना भी उतना ही जरूरी है कि इस निवेश में जोखिम कितना है, धन कितना और कहां तक डूब सकता है। इस जोखिम में भी बड़ी बारीकी होती है। इसका स्तर एक ही उद्योग की दो कंपनियों के लिए अलग-अलग हो सकता है। उनके बिजनेस का तरीका, प्रबंधन और मूल्यांकन अलग-अलग हो सकता है।
इसलिए निवेश से पहले यहां परख लेना जरूरी है कि किसी खास कंपनी से जुड़े जोखिम के क्या-क्या पहलू हैं। आप कहेंगे कि ये तो बड़ा झंझट है, लफड़ा है, बड़ा क्लेश है इसमें। तो, बंधुवर! धन कमाना कहीं से भी आसान नहीं है क्योंकि इसमें आप औरों से विनिमय मूल्य खींच रहे होते हैं। हालांकि शेयर बाजार में बिना कुछ जाने भी निवेश किया जा सकता है और लंबे समय में अर्थव्यवस्था के बढ़ने के साथ अपनी पूंजी को मुद्रास्फीति की सेंध से बचाया ही नहीं, बढ़ाया भी जा सकता है। लेकिन उसके बारे में अलग से फिर कभी, और कहीं। बाकी देखते हैं कि पिछले दिनों हमने क्या-क्या देखा-समझा। एक तो यही कि सीधी रेखा में नहीं, बल्कि लहरों की तरह चलते हैं शेयरों के भाव। इसलिए आज चूकनेवाला कल किसी स्टॉक को फिर से सही भाव पर पकड़ सकता है। ज्ञान की कुछ और बातें, कुछ और सार…
- दुनिया के सन्नाम निवेशक जॉर्ज सोरोस का कहना है, “निवेश का फैसला किसी वैज्ञानिक परिकल्पना को बनाने और उसे व्यवहार में परखने जैसा है। फर्क इतना है कि निवेश के फैसले से जुड़ी परिकल्पना का मसकद धन बनाना होता है, कोई सर्वमान्य सत्य स्थापित करना नहीं।” यह फैसला हर इंसान को खुद करना होता है। आपके लिए फैसला न तो कोई ब्रोकर और न ही कोई विशेषज्ञ कर सकता है। वे तो बस सूचना पाने के माध्यम बन सकते हैं।
- इक्विटी शेयर एकमात्र आस्ति है जिसका मूल्य मूलतः कंपनी द्वारा निरंतर बनाए जाते मूल्य को दर्शाते हुए बढ़ता जाता है। बाकी दूसरी आस्तियां या माध्यम या तो शेयर बाजार से ही कमाई करते हैं या ताश के पत्तों की तरह नोट को इस हाथ से उस हाथ तक पहुंचाते रहते हैं। इक्विटी पूंजी कमाती है तो शेयर का भाव बढ़ता है। इसी अनुपात को दर्शाता है मूल्य/अर्जन या पी/ई अनुपात। लेकिन जहां अर्जन शून्य है, वहां मूल्य कैसे निकालेंगे? सोने का यही हाल है। वो तो एकदम निठल्ला है। कुछ कमाता नहीं। फिर भी दाम दनादन बढ़ते जा रहे हैं। क्यों? सोचिए तो सही!
- अच्छे शेयरों का छांटने का एक मोटा नियम है कि देखिए कौन-कौन से शेयर फिलहाल अपनी तलहटी पर पहुंचे हैं। अगर इसकी कोई ठोस वजह है तो पतित लोगों की तरह ऐसे गिरे हुए स्टॉक्स से भी दूर रहना चाहिए। लेकिन अगर इसकी कोई वजह नहीं दिख रही, कंपनी दुरुस्त है, कामकाज व मुनाफा बढ़ रहा है तो ऐसे गिरे हुए स्टॉक्स निवेश का शानदार मौका पेश कर रहे होते हैं क्योंकि इनकी गिरावट की वजह या तो ऑपरेटरों का खेल है या कोई इनको तवज्जो नहीं दे रहा होता है।
- सब शेयरों को थोक के भाव एक ही तराजू में नहीं तौला जा सकता। उसी तरह जैसे सब धान पाइस पसेरी नहीं तौलते। लांग टर्म या दो से दस साल के लिए अलग, मीडियम टर्म या दो महीने से दो साल तक के लिए अलग, शॉर्ट टर्म या हफ्ते दस दिन से दो महीने तक के लिए अलग और एकाध दिन की ट्रेडिंग के लिए अलग। फंडामेंटल्स के आधार पर लांग टर्म, सूत्रों व खबरों के आधार पर मीडियम व शॉर्ट टर्म और तुरत-फुरत के लिए टेक्निकल एनालिसिस। अपनी जरूरत, जोखिम उठाने की क्षमता और शेयर की श्रेणी – लांग टर्म, मीडियम टर्म या शॉर्ट टर्म के सही मेल से ही इक्विटी बाजार में कमाई की जा सकती है।