यह सच है कि इंसान और समाज, दोनों ही लगातार पूर्णता की तरफ बढ़ते हैं। लेकिन जिस तरह कोई भी इंसान पूर्ण नहीं होता, उसी तरह सामाजिक व्यवस्थाएं भी पूर्ण नहीं होतीं। लोकतंत्र भी पूर्ण नहीं है। मगर अभी तक उससे बेहतर कोई दूसरी व्यवस्था भी नहीं है। यह भी सर्वमान्य सच है कि लोकतंत्र और बाजार में अभिन्न रिश्ता है। लोकतंत्र की तरह बाजार का पूर्ण होना भी महज परिकल्पना है, हकीकत नहीं। लेकिन बाजार से बेहतर कोई दूसरी प्रणाली नहीं। कितनी अजीब विडम्बना है कि व्यापक सामाजिक हितों की बात करनेवाले समाजवादी व साम्यवादी लोग व्यक्ति के ऊपर समाज को तरजीह देनेवाली इन दोनों ही व्यवस्थाओं को खारिज कर देते हैं। वे लोकतंत्र के बजाय पार्टी या सरकार की ताकत और आर्थिक सक्रियता को वरीयता देते हैं। इतने कटु अनुभवों के बावजूद वे यह देखने को तैयार नहीं कि एक पार्टी या सरकार का वर्चस्व कैसे व्यापक अवाम और राष्ट्र के हितों के खिलाफ चला जाता है।
इतना तय है कि सृजन और उद्यमशीलता का विकास उसी समाज में हो सकता है जहां भरपूर लोकतंत्र हो और बाजार शक्तियों को मुक्त भाव से खुलकर खेलने की आज़ादी हो। सब कुछ खुला हो। सबके सामने हो। पूरी पारदर्शिता हो। नियम सबके लिए समान हों। असमान होड़ न हो। धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध तो चले, लेकिन तय नियमों के अंतर्गत। निहत्थे पर वार न हो, सूरज ढलते ही युद्ध बंद हो जाए। आदि-इत्यादि। प्रतिस्पर्धा पर टिका बाजार भी ऐसे ही काम करता है। यह सच है कि महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण के रहते हुए भी, बल्कि उनके रहने के कारण ही, युद्ध-धर्म बार-बार तोड़ा गया क्योंकि आज की तरह तब भी, जीत ही सबसे बड़ा धर्म था। उसी तरह बाज़ार में भी तमाम कारस्तानियां चलती हैं। लेकिन कोई शासक जब एक इंच जमीन भी देने से इनकार कर दे, तब युद्ध ही एकमात्र विकल्प रह जाता है।
अपने यहां भी मुक्त बाजार और स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा का कोई विकल्प नहीं है। प्राकृतिक संसाधनों के वितरण में सरकार के सारे विशेषाधिकार छीन लिये जाने चाहिए। तभी राजनेताओं, नौकरशाहों और राजकृपा पर फलते-फूलते दलालों व धंधेबाज़ों की दुरुभिसंधि टूटेगी। तभी प्रतिभा और उद्यशीलता का विकास होगा। बाजार की शक्तियां उन्मुक्त विकास करेंगी और तमाम गोरखधंधों पर अपने-आप ही लगाम लग जाएगी। फाइनेंस के विद्यार्थी जानते होंगे कि पोर्टफोलियो में 40 से ज्यादा कंपनियों के शेयर हों तो अलग-अलग कंपनी से जुड़ा खास जोखिम आपस में कटकर खत्म हो जाता है और पोर्टफोलियो का जोखिम बाजार के समान जोखिम जितना रह जाता है। इसी तरह मुक्त बाज़ार तमाम छोटी-मोटी गड़बड़ियों को सामूहिक असर से खत्म कर देता है। वहीं, सरकार के नियंत्रण में चलनेवाला ‘बाज़ार’ कितनी बुराइयों और भ्रष्टाचार को जन्म देता है, इसके लिए आज किसी प्रमाण की जरूरत नहीं रह गई है।
आज हर तरफ आर्थिक विकास का शोर है। लेकिन हर सार्थक आर्थिक विकास में जन भागीदारी की जरूरत है। दूसरे, कोई भी आर्थिक विकास श्रम, पूंजी और टेक्नोलॉजी जैसे उत्पादन के कारकों से ही नहीं, बल्कि संस्थागत व्यवस्थाओं से भी तय होता है। जिस देश में आमजन पर डंडे बरसाने के लिए सरकार अब भी औपनिवेशिक शासन के दौरान 1860 में बनी भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) का सहारा लेती हो, उसका विकास जन भागीदारी कैसे करवा सकता है? आज बाज़ार शक्तियां पुराने तंत्र से टकरा रही हैं और इसी का असर है कि केजरीवाल, नारायण मूर्ति, किरण कार्णिक जैसी शख्सियतें उभर रही हैं और देश की आईटी राजधानी बैंगलोर के उद्योगपति पॉलिटिकल एक्शन कमिटी बना डालते हैं। कुछ विचारक मानते हैं कि भारत इस वक्त लोकतांत्रिक पूंजीवाद के रास्ते पर चल पड़ा है।
देश में हर तरफ से सार्वजनिक जीवन में शुचिता और पारदर्शिता की मांग उठ रही है। सूचना अधिकार कानून का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है। इससे और कुछ हो या न हो, अवसरों व सूचनाओं की समानता बढ़ेगी। जो भी गड़बड़ी हो, सबसे सामने आ जाएगी। कायदे कानून ऐसे होने चाहिए कि हर किसी को कड़वा से कड़वा सच सामने लाने को मजबूर होना पड़े। तभी बाजार की शक्तियां काम करती हैं और अंततः संत स्वभाव अपनाकर वे शक्तियां ‘सार-सार को गहि रहै, थोथा देय उड़ाय’ का काम करती हैं। सोचिए, वॉलमार्ट भारत में मंत्री से लेकर संत्री तक को घूस खिलाकर अपने आने का रास्ता साफ करवा लेती है। लेकिन अमेरिका में उसे खुलासा करना पड़ता है कि उसने भारत में लॉबीइंग करने पर पिछले चार सालों में ढाई करोड़ डॉलर (125 करोड़ रुपए) खर्च किए हैं। भारत में अगर सच्चा लोकतंत्र और मुक्त बाजार होता तो यहां भी बताना जरूरी होता कि हमारे वाणिज्य व उद्योग मंत्री आनंद शर्मा हर अमेरिकी दौरे से लौटने के बाद मल्टी ब्रांड रिटेल में एफडीआई की वकालत क्यों करने लग जाते थे।
यह है बाजार की ताकत और उसकी सीमा भी। जिस देश में बाजार जितना मजबूत व स्वस्थ होगा, बाजार शक्तियां जितनी मुक्त होंगी, उस देश का लोकतंत्र भी उतना ही मजबूत व स्वस्थ होगा। जो लोग गरीबी हटाने के लिए सरकार की भूमिका को अपरिहार्य मानते हैं, वे भेड़ की रखवाली भेड़िए से कराने जैसा काम कर रहे हैं। अभी तक सरकार की इस कृपा से देश में अटक से कटक तक दलालों की बड़ी फौज खड़ी हो गई है। असल में बाजार की मूलभूत भूमिका यह है कि वह आर्थिक विकास से हासिल समृद्धि को, व्यापक सामाजिक संसाधनों को बांटने का काम करे। सरकारी दखल लोगों को पराश्रयी बनाता है, जबकि जरूरत उन्हें स्वावलंबी बनाने की है। बाजार अंततः लोकतंत्र की सेवा करता है। अगर वह लोकतंत्र की सेवा नहीं कर रहा, समाज से गरीबी को मिटाने में सहायक नहीं हो रहा तो यकीन मानिए कि उसके साथ जरूर कोई न कोई समस्या है। एक बात और। दुनिया में इंसानों द्वारा बनाई गई हर महान चीज को दुरुपयोग हुआ है। यकीनन, बाजार का भी दुरुपयोग हुआ है। लेकिन इसमें दोष उसका नहीं, बल्कि गलत राजनीति का है। सरकार और उसके तंत्र का है, उससे बाहर के लोगों का नहीं।